776 bytes added,
10:27, 16 मई 2014 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=परमानंददास
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatPad}}
<poem>
यह धन धर्म ही तें पायो।
नीके राखि जसोदा मैया नारायण ब्रज आयो॥१॥
जा धन को मुनि जप तप खोजत वेदहुं पार न पायो।
सों धन धर्यो क्षीर सागर में ब्रह्मा जाय जगायो॥२॥
जा धन तें गोकुल सुख लहियत, सगरे काज संवारे।
सो धन वार वार उर अंतर, परमानंद विचारे॥३॥
</poem>