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13:26, 17 मई 2014 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=परमेश्वर लाल प्रजापत
|संग्रह=मंडाण / नीरज दइया
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{{KKCatKavita}}
<Poem>विकास री गंगा अर
कादै री नाळी
चालै अड़ो-अड़।
गंगा मांय खावो खळखोटो
गात निरमळ होय जावै
गरीबी रो मैल धुप जावै
पण चेतो राखो
उण नाळै मांय
पग नीं पड़ जावै।
इण नाळै री भींत
घणी तिसळणी
नेड़ै जायां पड़्यां सरै
पड़्यां पछै
निसरणो घणो ओखो।
इण खातर
जुवान भायां अर बैनां!
मानो म्हारो कैवणो
इण नाळै रै लगाद्यो
हिम्मत अर थावस रो डाटो
अर विकास री गंगा नैं
बैवण द्यो आपरै
तेज वेग सूं।
खावण द्यो गोता
अर न्हावण द्यो इण मांय
आपणै समाज रा
पांगळा, आंधा, बै’रा, गूंगा
मिनखां नैं,
होवण द्यो चंगा
डील अर मन सूं।</poem>