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11:44, 25 मई 2014 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=पुष्पिता
|अनुवादक=
|संग्रह=
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<poem>
मैं सुनती हूँ तुम्हें
सुनकर छूती हूँ तुम्हें
तुम्हारे स्वप्न
आवाज़ बनकर गूँजते हैं भीतर
कि अंतरिक्ष हो जाती हूँ
तुम्हारे ओठों के शब्दों से चुराकर
सुना है तुम्हें
तुमसे ही तुम्हें छुपाकर
गुना है तुम्हें
तुम्हारा ऐकान्तिक मौन-विलाप
तुमसे दूर होकर
मैंने दूर होकर भी
अपनी धड़कनों की तरह अनुभव किया है उसे
जैसे नदी जीती है
अपने भीतर पूर्णिमा का चाँद
पूर्ण सूर्योदय
झिलमिलाते सितारे
और चुपचाप पीती है
ऋतुओं की हवाएँ...।
</poem>