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|रचनाकार=सरवर आलम राज़ 'सरवर'
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|संग्रह=एक पर्दा जो उठा / सरवर आलम राज़ 'सरवर'
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<poem>सौदा ख़ुदी का था न हमें बेख़ुदी का था
सारा फ़रेब कशमकश-ए-आगही का था

मेरी वफ़ा का था, न तिरी बेरुख़ी का था
क़िस्सा जो था वो फ़िक़्र की बेचारगी का था

हम मुतमइन थे हो के शरीक-ए-ग़म-ए-जहां
और उन को ग़म जो था वो हमारी ख़ुशी का था!

आलाम-ए-रोज़गार से ग़म-हाये-इश्क़ तक
था मरहला जो ज़ीस्त में हैरानगी का था!

यूँ भी हुआ है दोस्त! सर-ए-बज़्म-ए-आरज़ू
एहसास था अगर तो वह ख़ुद में कमी का था!

फ़िक्र-ए-विसाल, याद-ए-बुतां, रंज-ए-आरज़ू
जैसे इजारा ज़ात पे मेरी सभी का था!

सुनता जो कोई ‘गोश-ए-हक़ीक़त-नियोश’ से
महफ़िल में शोर-ए-हश्र मिरी ख़ामशी का था

इक ऐतिबार-ए-जौर था सो वो भी उठ गया
कब ऐतिबार हम को तिरी दोस्ती का था

जिस अजनबी ने हम को तमाशा बना दिया
क्यों दिल को ऐतिबार उसी अजनबी का था?

तू इम्तिहान-ए-मंज़िल-ए-हैरानगी न पूछ
किस को दिमाग अपनी ही पर्दा-दरी का था?

राह-ए-वफ़ा में लुट गया आख़िर वो किस तरह
"सरवर" जो ज़ोम आप को फ़र्ज़ानगी का था?
</poem>
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