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|रचनाकार=सरवर आलम राज़ 'सरवर'
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|संग्रह=एक पर्दा जो उठा / सरवर आलम राज़ 'सरवर'
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<poem>कशाकश-ए-ग़म-ए-हस्ती सताए, क्या कहिए!
फिर उस पे सोज़-ए-दुरूँ दिल जलाए,क्या कहिए!

ख़ुलूस-ओ-लुत्फ़ को ढूँढा किए ज़माने में
चले जहां से वहीं लौट आए, क्या कहिए!

वो पास रह के रहे दूर इक करिश्मा है
वो दूर रह के मगर पास आए, क्या कहिए!

संभल संभल के चले सू-ए-दैर गो मयकश
क़दम कुछ ऐसे मगर लड़खड़ाए, क्या कहिए!

कोई हरीफ़-ए-ग़म-ए-ज़िन्दगी नहीं देखा
हरीफ़ यूँ तो बहोत आज़माए, क्या कहिए!

यूँ आफ़्ताब छुपा शाम-ए-ग़म की चादर में
कि जैसे नब्ज़ कोई डूब जाए, क्या कहिए!

हमें ये ज़िद कि सवाल-ए-तलब नहीं करते
उन्हें ये ज़िद कि ये खाली ही जाए,क्या कहिए!

कोई बताए कि अन्दाज़-ए-हुस्न-ए-ख़्वाबीदा
भुलाने पर भी अगर याद आए, क्या कहिए?

लरज़ रहा है गुहर-ताब दिल सर-ए-मिज़गाँ
सितारा-ए-सहरी झिलमिलाये, क्या कहिए!

हिकायत-ए-हरम-ओ-दैर खूब है ‘सरवर"
मगर ये शाम-ओ-सहर हाय-हाय! क्या कहिए!
</poem>
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