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|रचनाकार=प्रभुदयाल श्रीवास्तव
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<poem>सुबह ‘चार’ पर मुर्गे उठकर,

हर दिन बाँग लगाते थे|

सोने वाले इंसानों को,

“उठो उठो “चिल्लाते थे|


किंतु आजकल भोर हुये,

आवाज़ नहीं ये आती है|

लगता है कि अब मुर्गों की,

नींद नहीं खुल पाती है|


मुर्गों के घर चलकर उनको,

हम मोबाईल दे आयें|

और अलार्म है, कैसे भरना,

उनको समझाकर आयें|


चार बजे का लगा अलार्म,

मुर्गे जब उठ जायेंगे|

कुकड़ूं कूं की बांग लगेगी,

तो हम भी जग जायेंगे|


मुन्नूजी ने इसी बात पर,

पी. ए.को बुल‌वाया है|

द‌स‌ ह‌ज़ार‌ मोबाईल‌ लेने,

का आर्ड‌र‌ क‌र‌वाया है|
</poem>
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