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06:12, 10 जुलाई 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार
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|संग्रह=पद-रत्नाकर / भाग- 4 / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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<poem>
प्रभु! मैं नहिं नाव चलावौं।
तव पद रज नर-करनि मूरि प्रभु!
महिमा अमित कहाँ लगि गावौं।
पाहन छुअत नारि भइ पावनि,
काठ पुराने की यह नावौं।
परसत रज मुनि-नारि बनै यह,
मैं पुनि असि नौका कहँ पावौं॥
मैं अति दीन-दरिद्र कुटुम्ब बहु,
यहि नौका तें सबहिं निभावौं।
जो यह उड़ै, जीविका बिनसै,
केहि बिधि पुनि परिवार चलावौं॥
अनुमति होइ तो लेइ कठौता,
सुरसरि-जल भरि प्रभु पहँ लावौं।
पद पखारि, रज धोइ भली बिधि,
करि चरनामृत पाप नसावौं॥
प्रभु-चरनन की सपथ नाथ! मैं,
अन्य भाँति नहिं नाव चढ़ावौं।
लखन रिसाइ तीर जो मारैं,
निबल, पकरि पद प्रान गवावौं॥
प्रेम भरे, अति सरल सुहावन,
अटपट बचन सुने रघुरावौं।
करुना-निधि हँसि अनुमति दीन्ही,
केवट कह्यो पार लै जावौं॥
</poem>