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08:00, 2 सितम्बर 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=प्रियदर्शन
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<poem>
कविता लिखना आसान नहीं होता
लिखने से पहले अपने सोचने-देखने का ढंग बदलना पड़ता है
जैसे दुनिया पर पड़ी धूल गर्द झाड़कर उसे चमका रहे हों
ताकि उसको उसके महीन रंगों, उसकी असली चमक के साथ पहचान सकें।
कविता लिखने से पहले खुद को भी बदलना पड़ता है थोड़ा सा
तुम्हें कुछ देर की चुप्पी चाहिए
और वे सारी सुनी-अनसुनी आवाज़ें जो
आसपास बेआवाज़ सुनाई पड़ती रहती हैं
कहीं दूर बोलती चिड़िया
कहीं और दूर गु़ज़रती कोई गाड़ी
कहीं पास सब्ज़ी की पुकार लगाता कोई एक आदमी
कहीं और पास किसी खेलते हुए बच्चे की हंसी
कविता लिखते हुए अचानक तुम अपने आसपास की दुनिया के प्रति
सतर्क हो जाते हो, कुछ मुलायम और संवेदनशील
घास हो या आकाश, पेड़ हो या पत्थर
सबका छुपा स्पंदन, सबमें निहित चुप्पी
एकाएक जैसे तुम्हारे सामने खुलने लगते हैं
दुनिया जैसे एक नई आवाज़ में तुम्हें पुकारती लगती है
यह कोई जादू नहीं है,
बस अपने स्नायु तंत्र को कुछ जगा लेने का उद्यम है
अपनी आंख, अपने कान कुछ खोल लेने की कोशिश
ताकि तुम समेट, सुन देख सको अपने आसपास की सारी गंध, सारे स्वर, सारे दृश्य
ख़ासकर वे बेहद महीन, मद्धिम कण और फुसफुसाहटें
जो रोजमर्रा के शोर में गुम हो जाते हैं
कविता लिखना दुनिया को नए सिरे से देखना है
अपनी मनुष्यता को नए सिरे से पहचानना
इस पहचान में यह सवाल भी शामिल है
कि जब तुम कविता नहीं लिख रहे होते
तब भी दुनिया को इतनी मुलायम निगाहों से क्यों नहीं देख रहे होते?
कविता लिखना खुद को याद दिलाना है
कि सबसे पहले और आखिर में तुम मनुष्य हो
कि रोज़मर्रा का जो चाकू इस मनुष्यता को बार-बार छीलता और तार-तार करता है.
जो रोज़ तुम्हें कुछ कम मनुष्य रहने देता है
उसके विरुद्ध एक कवच का काम कर सकती है कविता।
इसकी इकलौती शर्त है कि इसे हमेशा सीने से लगाए रखो
लेकिन क्या यह आसान है
कविता को लगातार सीने से लगाए रखना
अपनी धुकधुकी के साथ महसूस करना?
इसकी भी चुकानी पड़ती है क़ीमत
इसकी भी डालनी पड़ती है आदत।
दरअसल कविता लिखते हुए ही समझ में आता है
कविता सिर्फ तब ही नहीं लिखी जा रही होती
जब तुम उसे कागज पर उतारते हो,
वह तब भी तुम्हारे भीतर बन रही होती है
जब तुम उससे पूरी तरह बेखबर होते हो।
</poem>