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10:28, 2 सितम्बर 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=प्रियदर्शन
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<poem>
ईश्वर और आदमी और ताकत के इस खेल को करीब से देखने पर
समझ में आता है कि ज़िंदगी का खेल दौड़ने से नहीं, छोड़ने से सधता है
वरना हम आगे-आगे दौड़ते जाते हैं, पीछे की ज़मीन छूटती जाती है।
वैसे दौड़ने और छोड़ने से कहीं ज़्यादा तुक
छोड़ने और जोड़ने की मिलती है
जब हम कुछ छोड़ते हैं तो कुछ जोड़ते भी हैं
लेकिन अगर छोड़ने से पहले जोड़ने का खयाल आ जाए
तो वाक्य और जीवन दोनों में आखिर में छोड़ने की ही नौबत आएगी।
ध्यान से देखिए तो इस खेल में ताकत का सवाल भी पीछे छूट गया
और
ईश्वर का ख़याल भी,
वह कविता तो न जाने कहां रह गई
जो ताकत और ईश्वर को और इंसान और भगवान को जोड़ने और समझने की चाहत में शुरू की गई थी।
तो अब ऐसा करते हैं, सबकुछ छोड़ देते हैं।
तय है कि इससे भगवान नहीं सधेगा,
इंसान भी नहीं सधेगा,
कविता भी नहीं सधेगी
लेकिन देर तक चुप रहकर देखिए
सबकुछ को छोड़कर खोकर, सहकर देखिए
शायद इस मौन में
ईश्वर भी पांव दबाए चला आए
कविता भी आंख मलती हुई खड़ी हो जाए
मनुष्य भी सांस लेने लगे।
</poem>