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10:36, 2 सितम्बर 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=प्रियदर्शन
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<poem>
झूठ है सबकुछ
झूठ है ज़िंदगी जिसे ख़त्म हो जाना है एक दिन
झूठ हैं रिश्ते जो ज़रूरत की बुनियाद पर टिके होते हैं
झूठ है प्यार, जो सिर्फ अपने-आप से होता है- दूसरा तो बस अपने को चाहने का माध्यम होता है
झूठ है अधिकार, जो सिर्फ होता है मिल नहीं पाता
झूठ है कविता- अक्सर भरमाती रहती है
झूठ हैं सपने- बस दिखते हैं होते नहीं
झूठ है देखना, क्योंकि वह आंखो का धोखा है
झूठ है सच, क्योंकि उसके कई रूप होते हैं
झूठ हैं ये पंक्तियां- इन्हें पढ़ना और भूल जाना।
</poem>