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अवकाश नहीं / शचीन्द्र भटनागर
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22:25, 6 सितम्बर 2014
<poem>
सूख रहा कण्ठ
होंठ
पपडाए
पपड़ाए
लेकिन
अँजुरी भरने का अवकाश नहीं मिलता है
अनिल जनविजय
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