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|रचनाकार=कुमार मुकुल
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|संग्रह=परिदृश्य के भीतर / कुमार मुकुल
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<poem>
1
 बचपन में  
गांव के कुएं के चौडे चबूतरे पर सोना
 
डराता था मुझे
 
फिर भी मैं सोता था वहां
 
क्योंकि चबूतरे पर
 
सपने बडे सुंदर आते थे
 
मैं डरता था कि कभी - कभी
 
बिल्ली चली आया करती थी
 
चबूतरे पर
 
मैं डरता कि कहीं बिल्ली के डर से
 
कुएं में ना गिर जाउं
 
इसी डर से कुत्ते को
 
अपने पास सुलाता था मैं
 कभी कभी मैं झांकता कुएं में 
तो आकाश उतराता नजर आता
 
मुझे यह अच्छा लगता पर तभी
 
एक काली छाया नजर आती मुझे
 
हिलती हुई
 
वह मेरी ही छाया होती थी
 
जो डराती थी मुझे
 
चबूतरे के पास ही
 
मेहंदी लगी थी
 
जो आज तक हरी है
 
दिन में जिस पर लंगोट सूखते हैं
 
और रात में उगते हैं सफेद सपने ।
 
2
 
एक कुआं है
 
महानगर में भी
 बिना चबूतरे के  
उसके निकट जाने पर ही
 
पता चलता कि कुआं है
 
अडोस पडोस के लोग सोचते हैं
 
कि इसे भरवा देना चाहिए
 
साल में एक बार छठ में
 
महातम जगता है इसका
 
कुछ लोग जिन्हें
 इस लोकतंत्र में राय देने लायक  
नहीं समझा जाता
 वे कुएं के बारे में ऐसा नहीं सोचते वह चाय की गुमटी वाला  
ऐसा नहीं सोचता
 
जिसकी चाय के लिए पानी
 
इसी कुएं से जाता है
 सुबह सुबह कुछ दूघि‍ए  
अपने गेरू वहीं धोते हैं
 
एक भि‍खमंगा
 
भरी दोपहरी में
 
नहाता है वहीं
 
पर पडोस में ही एक स्कूल है
 
ओर महानगर के सुनागरिक
 
ठीक ही सोचते हैं
 
कि उनके बच्चे इसमें गिर ना जाएं
 
भि‍खमंगे की एक ही संतान है
 
पर भि‍खमंगा अक्सर यह कहता हुआ
 
गुजरता है
 
कि इस मुए को एक दिन
 इसी कुएं में  
डाल देना है ।
 
1995
</poem>
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