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रेल- जिन्दगी / अवनीश सिंह चौहान

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<Poem>
एक ट्रैक पर रेल जिन्दगी ज़िंदगी
कब तक?
कितना सफ़र सुहाना
धक्का-मुक्की भीड़-भड़क्का बात-बात पर चौका-छक्का
चोट किसी को लेकिन किसकी ख़त्म कहानी किसने जाना
एक आदमी दस मन अंडी लदी हुई है पूरी मंडी
किसे पता है कहाँ लिखा है किसके खाते आबोदाना
बिना टिकट
छुन्ना को पकड़े
रौब झाड़ कर
टी.टी. अकड़े
कितना लूटा
और खसोटा
'सब चलता'
कह रहा ज़माना!
</poem>
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