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फुटकर शेर / ओम प्रकाश नदीम
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09:27, 1 दिसम्बर 2014
हमें मालूम है रस्मन है ये सब कुछ मगर फिर भी,
मुबारक हो अन्धेरे में उजाले की तरफ़दारी ।
'''9.'''
भरे बाज़ार से अक्सर मैं, ख़ाली हाथ आता हूँ,
कभी ख़्वाहिश नहीं होती, कभी पैसे नहीं होते ।
</poem>
अनिल जनविजय
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