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{{KKCatKavita}}<poem>महाकवि कालिदास के मेघदूत से साहित्यानुरागी संसार भलिभांति परिचित है, उसे पढ़ कर जो भावनाएँ ह्रदय में जाग्रत होती हैं, उन्हें ही मैंने निम्नलिखित कविता में पद्यबध्द किया है भक्त गंगा की धारा में खड़ा होता है और उसीके जल से अपनी अंजलि भरकर गंगा को समर्पित कर देता है इस अंजलि में उसका क्या रहता है, सिवा उसकी श्रध्दा के? मैंने भी महाकवि की मंदाक्रांता की मंद गति से प्रवाहित होने वाली इस कविता की मंदाकिनी के बीच खड़े हो कर, इसी में कुछ अंजलि उठाकर इसीको अर्पित किया है इसमें भी मेरे अपनेपन का भाग केवल मेरी श्रध्दा ही है --'' '''हरिवंशराय बच्चन'''<br><br><br>
"मेघ" जिस जिस काल पढ़ता,<br>मैं स्वयं बन मेघ जाता!<br><br>
हो धरणि चाहे शरद की<br>चाँदनी में स्नान करती,<br>वायु ऋतु हेमंत की चाहे<br>गगन में हो विचरती,<br><br>
हो शिशिर चाहे गिराता<br>पीत-जर्जर पत्र तरू के,<br>कोकिला चाहे वनों में,<br>हो वसंती राग भरती,<br><br>
ग्रीष्म का मार्तण्ड चाहे,<br>हो तपाता भूमि-तल को,<br>दिन प्रथम आषाढ़ का में<br>'मेघ-चर' द्वारा बुलाता<br><br>
'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,<br>मैं स्वयं बन मेघ जाता!<br><br>
भूल जाता अस्थि-मज्जा-<br>मांसयुक्त शरीर हूँ मैं,<br>भासता बस-धूम्र संयुत<br>ज्योति-सलिल-समीर हूँ मैं,<br><br>
उठ रहा हूँ उच्च भवनों के,<br>शिखर से और ऊपर,<br><br>देखता संसार नीचेइंद्र का वर वीर हूँ मैं,
देखता संसार नीचे<br>इंद्र का वर वीर मंद गति से जा रहा हूँ मैंपा पवन अनुकूल अपनेसंग है वक-पंक्ति,<br><br>चातक-दल मधुर स्वर गीत गाता
मंद गति से जा रहा हूँ<br>पा पवन अनुकूल अपने<br>संग है वक-पंक्ति'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता, चातक-<br>दल मधुर स्वर गीत गाता<br><br>मैं स्वयं बन मेघ जाता!
झोपडी़, ग्रह, भवन भारी,महल औ'मेघ' जिस जिस काल पढ़ताप्रासाद सुंदर,<br>मैं स्वयं बन मेघ जाता!<br><br>कलश, गुंबद, स्तंभ, उन्नतधरहरे, मीनार द्धढ़तर,
झोपडी़दुर्ग, ग्रहदेवल, भवन भारीपथ सुविस्त्तत,<br>महल औ' प्रासाद सुंदरऔर क्रीडो़द्यान-सारे,<br>कलश, गुंबद, स्तंभ, उन्नत<br>मंत्रिता कवि-लेखनी केधरहरे, मीनार द्धढ़तर,<br><br>स्पर्श से होते अगोचर
दुर्ग, देवल, पथ सुविस्त्तत,<br>और सहसा रामगिरि पर्वतऔर क्रीडो़द्यान-सारेउठाता शीशा अपना,<br>मंत्रिता कविगोद जिसकी स्निग्ध छाया-लेखनी के<br>स्पर्श से होते अगोचर<br><br>वान कानन लहलहाता!
और सहसा रामगिरि पर्वत<br>उठाता शीशा अपना'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,<br>गोद जिसकी स्निग्ध छाया<br>-वान कानन लहलहातामैं स्वयं बन मेघ जाता!<br><br>
'मेघ' जिस जिस काल पढ़तादेखता इस शैल के हीअंक में बहु पूज्य पुष्कर,<br>मैं स्वयं बन मेघ जाता!<br><br>पुण्य जिनको किया थाजनक-तनया ने नहाकर
देखता इस शैल संग जब श्री राम के ही<br>वे,अंक में बहु पूज्य पुष्करथी यहाँ पे वास करती,<br>पुण्य जिनको किया था<br>देखता अंकित चरण उनकेजनकअनेक अचल-तनया ने नहाकर<br><br>शिला पर,
संग जब श्री राम के वे,<br>जान ये पद-चिन्ह वंदितथी यहाँ पे वास करतीविश्व से होते रहे हैं,<br>देखता अंकित चरण उनके<br>देख इनको शीश में भीअनेक अचलभक्ति-शिला पर,<br><br>श्रध्दा से नवाता
जान ये पद-चिन्ह वंदित<br>विश्व से होते रहे हैं'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,<br>देख इनको शीश में भी<br>भक्ति-श्रध्दा से नवाता<br><br>मैं स्वयं बन मेघ जाता!
'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,<br>देखता गिरि की शरण मेंमैं स्वयं एक सर के रम्य तट परएक लघु आश्रम घिरा बन मेघ जाता!<br><br>तरु-लताओं से सघनतर,
देखता गिरि की शरण में<br>इस जगह कर्तव्य से च्युतएक सर यक्ष को पाता अकेला,निज प्रिया के रम्य तट पर<br>ध्यान में जोएक लघु आश्रम घिरा बन<br>तरुअश्रुमय उच्छवास भर-लताओं से सघनतरभर,<br><br>
इस जगह कर्तव्य से च्युत<br>यक्ष को पाता अकेलाक्षीणतन हो,<br>दीनमन होनिज प्रिया के ध्यान में जो<br>और महिमाहीन होकरअश्रुमय उच्छवास वर्ष भरकांता-भर,<br><br>विरह केशाप के दुर्दिन बिताता
क्षीणतन हो'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता, दीनमन हो<br>और महिमाहीन होकर<br>वर्ष भर कांता-विरह के<br>शाप के दुर्दिन बिताता<br><br>मैं स्वयं बन मेघ जाता!
'मेघ' था दिया अभिशाप अलका-ध्यक्ष ने जिस जिस काल पढ़तायक्षवर को,<br>मैं स्वयं बन मेघ जाता!<br><br>वर्ष भर का दंड सहकरवह गया कबका स्वघर को,
था दिया अभिशाप अलका-<br>ध्यक्ष ने जिस यक्षवर प्रयेसी को,<br>एक क्षण उर सेवर्ष भर का दंड सहकर<br>वह गया कबका स्वघर को,<br><br>लगा सब कष्ट भूला
प्रयेसी को एक क्षण उर से<br>किन्तु शापित यक्षलगा सब कष्ट भूला<br><br>महाकवि, जन्म-भरा को!
किन्तु शापित यक्ष<br>रामगिरि पर चिर विधुर होमहाकवियुग-युगांतर से पडा़ है,मिल ना पाएगा प्रलय तकहाय, जन्मउसका शाप-भरा कोत्राता!<br><br>
रामगिरि पर चिर विधुर हो<br>युग-युगांतर से पडा़ है'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,<br>मिल ना पाएगा प्रलय तक<br>हाय, उसका शाप-त्रातामैं स्वयं बन मेघ जाता!<br><br>
'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,<br>देख मुझको प्राणप्यारीमैं स्वयं बन मेघ जाता!<br><br>दामिनी को अंक में भरघूमते उन्मुकत नभ मेंवायु के म्रदु-मंद रथ पर,
देख मुझको प्राणप्यारी<br>अट्टहास-विलास से मुख-दामिनी रित बनाते शून्य को अंक में भर<br>भीघूमते उन्मुकत नभ में<br>जन सुखी भी क्षुब्ध होतेवायु के म्रदु-मंद रथ पर,<br><br>भाग्य शुभ मेरा सिहाकर;
अट्टहासप्रणयिनी भुज-विलास पाश से मुख-<br>जोरित बनाते शून्य को भी<br>है रहा चिरकाल वंचित,जन सुखी भी क्षुब्ध होते<br>यक्ष मुझको देख कैसेभाग्य शुभ मेरा सिहाकर;<br><br>फिर न दुख में डूब जाता?
प्रणयिनी भुज-पाश से जो<br>है रहा चिरकाल वंचित'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,<br>यक्ष मुझको देख कैसे<br>फिर न दुख में डूब मैं स्वयं बन मेघ जाता?<br><br>!
'मेघ' जिस जिस काल पढ़तादेखता जब यक्ष मुझकोशैल-श्रंगों पर विचरता,<br>मैं स्वयं बन मेघ जाता!<br><br>एकटक हो सोचता कुछलोचनों में नीर भरता,
देखता जब यक्ष मुझको<br>शैलयक्षिणी को निज कुशल-श्रंगों पर विचरता,<br>एकटक हो सोचता कुछ<br>संवाद मुझसे भेजने कीकामना से वह मुझे उठबार-लोचनों में नीर भरता,<br><br>बार प्रणाम करता
यक्षिणी को निज कुशलकनक विलय-<br>विहीन कर सेसंवाद मुझसे भेजने की<br>फिर कुटज के फूल चुनकरकामना प्रीति से वह मुझे उठबारस्वागत-<br>वचन कहबार प्रणाम करता<br><br>भेंट मेरे प्रति चढा़ता
कनक विलय-विहीन कर से<br>'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,फिर कुटज के फूल चुनकर<br>प्रीति से स्वागत-वचन कह<br>भेंट मेरे प्रति चढा़ता<br><br>मैं स्वयं बन मेघ जाता!
'मेघ' जिस जिस काल पढ़तापुष्करावर्तक घनों केवंश का मुझको बताकर,कामरूप सुनाम दे,<br>कहमैं स्वयं बन मेघ जाता!<br><br>मेघपति का मान्य अनुचर
पुष्करावर्तक घनों कंठ कातर यक्ष मुझसेप्रार्थना इस भांति करता-'जा प्रिया के<br>पास लेवंश का मुझको बताकरसंदेश मेरा,<br>कामरूप सुनाम दे, कह<br>मेघपति का मान्य अनुचर<br><br>बंधु जलधर!
कंठ कातर यक्ष मुझसे<br>वास करती वह विरहिणीप्रार्थना इस भांति करताधनद की अलकापुरी में,शंभु शिर-<br>शोभित कलाधरज्योतिमय जिसको बनाता'जा प्रिया के पास ले<br>संदेश मेरा,बंधु जलधर!<br><br>
वास करती वह विरहिणी<br>धनद की अलकापुरी में'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,<br>शंभु शिर-शोभित कलाधर<br>ज्योतिमय जिसको बनाता'<br><br>मैं स्वयं बन मेघ जाता!
'मेघ' जिस जिस काल पढ़तायक्ष पुनः प्रयाण के अनु-रूप कहता मार्ग सुखकर,<br>मैं स्वयं बन मेघ जाता!<br><br>फिर बताता किस जगह पर,किस तरह का है नगर, घर,
यक्ष पुनः प्रयाण के अनु-<br>रूप कहता मार्ग सुखकरकिस दशा,<br>फिर बताता किस जगह पररूप में हैप्रियतमा उसकी सलोनी,<br>किस तरह का है नगरसूनी बितातीरात्रि, घरकैसे दीर्ध वासर,<br><br>
किस दशाक्या कहूँगा, किस रूप में है<br>प्रियतमा उसकी सलोनीक्या करूँगा,<br>किस तरह सूनी बिताती<br>मैं पहुँचकर पास उसके;रात्रि, कैसे दीर्ध वासर,<br><br>किन्तु उत्तर के लिए कुछशब्द जिह्वा पर ना आता
क्या कहूँगा'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,क्या करूँगा,<br>मैं पहुँचकर पास उसके;<br>किन्तु उत्तर के लिए कुछ<br>शब्द जिह्वा पर ना आता<br><br>स्वयं बन मेघ जाता!
'मेघ' जिस जिस काल पढ़तामौन पाकर यक्ष मुझकोसोचकर यह धैर्य धरता,<br>मैं स्वयं बन मेघ जाता!<br><br>सत्पुरुष की रीति है यहमौन रहकर कार्य करता,
मौन पाकर यक्ष मुझको<br>देखकर उद्यत मुझेसोचकर यह धैर्य धरताप्रस्थान के हित,<br>सत्पुरुष की रीति है यह<br>कर उठाकरमौन रहकर कार्य करता,<br><br>वह मुझे आशीष देता-
देखकर उद्यत मुझे<br>'इष्ट देशों में विचरता,प्रस्थान हे जलद, श्री व्रिध्दि कर तूसंग वर्षा-दामिनी के हित,<br><br>हो न तुझको विरह दुख जोआज मैं विधिवश उठाता!'
कर उठाकर<br>वह मुझे आशीष देता-<br><br> 'इष्ट देशों में विचरता,<br>हे जलद, श्री व्रिध्दि कर तू<br>संग वर्षा-दामिनी के,<br>हो न तुझको विरह दुख जो<br>आज मैं विधिवश उठाता!'<br><br> 'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,<br>मैं स्वयं बन मेघ जाता! <br><br/poem>
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