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नदी को रास्ता किसने दिखाया ?
सिखाया था उसे किसने
कि अपनी भावना के वेग को
उन्मुक्त बहने दे ?
कि वह अपने लिए
खुद खोज लेगी
सिन्धु की गम्भीरता
स्वच्छन्द बहकर ?
इसे हम पूछते आए युगों से,
और सुनते भी युगों से आ रहे उत्तर नदी का ।का।
मुझे कोई कभी आया नहीं था राह दिखलाने,
बनाया मार्ग मैने आप ही अपना ।अपना।
ढकेला था शिलाओं को,
गिरी निर्भिकता से मैं कई ऊँचे प्रपातों से,
ठोकर लगाकर, ठेलकर,
बढती गई आगे निरन्तर
एक तट को दूसरे से दूरतर करती ।करती।
बढ़ी सम्पन्नता के
पहुँची जहाँ सागर खडा था
फेन की माला लिए
मेरी प्रतीक्षा में ।में।
यही इतिवृत्त मेरा ...
मार्ग मैने आप ही बनाया ।बनाया।
मगर भूमि का है दावा,
वेग लाने के लिए
बनी समतल
जहाँ चाहा कि उसकी चाल धीमी हो ।हो।
बनाती राह,
गति को तीव्र अथवा मन्द करती
ले गई भोली नदी को भूमि सागर तक
किधर है सत्य ?
मन के वेग ने
परिवेश को अपनी सबलता से झुकाकर
कि मन के वेग को बहना पडा था बेबस
जिधर परिवेश ने झुककर
स्वयं ही राह दे दी थी ?किधर है सत्य ?
क्या आप इसका जबाब देंगे ?
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