[[Category:महाकाव्य]]
<poem>
ऊषा सुनहले तीर बरसती , जयलक्ष्मी-सी उदित हुई, हुई।
उधर पराजित काल रात्रि भी
जल में अतंर्निहित हुई।
वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का , आज लगा हँसने फिर से, से। वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में ,
शरद-विकास नये सिर से।
नव कोमल आलोक बिखरता , हिम-संसृति पर भर अनुराग, अनुराग। सित सरोज पर क्रीड़ा करता ,
जैसे मधुमय पिंग पराग।
धीरे-धीरे हिम-आच्छादन , हटने लगा धरातल से, से। जगीं वनस्पतियाँ अलसाई , मुख धोती धोतीं शीतल जल से।
नेत्र निमीलन करती मानो मानों, प्रकृति प्रबुद्ध लगी होने, होने। जलधि लहरियों की अँगड़ाई ,
बार-बार जाती सोने।
सिंधुसेज पर धरा वधू अब , तनिक संकुचित बैठी-सी, सी। प्रलय निशा की हलचल स्मृति में ,
मान किये सी ऐठीं-सी।
देखा मनु ने वह अतिरंजित , विजन का नव एकांत, एकांत।
जैसे कोलाहल सोया हो
हिम-शीतल-जड़ताजड़ता-सा श्रांत।
इंद्रनीलमणि महा चषक था , सोम-रहित उलटा लटका, लटका। आज पवन मृदु साँस ले रहा ,
जैसे बीत गया खटका।
वह विराट था हेम घोलता , नया रंग भरने को आज, आज। 'कौन'? हुआ यह प्रश्न अचानक ,
और कुतूहल का था राज़!
"विश्वदेव, सविता या पूषा,
सोम, मरूत, चंचल पवमान, पवमान। वरूण आदि सब घूम रहे हैं ,
किसके शासन में अम्लान?
किसका था भू-भंग प्रलय-सा , जिसमें ये सब विकल रहे, रहे। अरे प्रकृति के शक्ति-चिह्न ,
ये फिर भी कितने निबल रहे!
विकल हुआ सा काँप रहा था,
सकल भूत चेतन समुदाय, समुदाय। उनकी कैसी बुरी दशा थी ,
वे थे विवश और निरुपाय।
देव न थे हम और न ये हैं,
सब परिवर्तन के पुतले, पुतले।
हाँ कि गर्व-रथ में तुरंग-सा,
जितना जो चाहे जुत ले।"
"महानील इस परम व्योम में,
अतंरिक्ष में ज्योतिर्मान, ज्योतिर्मान।
ग्रह, नक्षत्र और विद्युत्कण
किसका करते से-संधान!
छिप जाते हैं और निकलते , आकर्षण में खिंचे हुए? हुए।
तृण, वीरुध लहलहे हो रहे
किसके रस से सिंचे हुए?
सिर नीचा कर किसकी सत्ता , सब करते स्वीकार यहाँ, यहाँ। सदा मौन हो प्रवचन करते ,
जिसका, वह अस्तित्व कहाँ?
हे अनंत रमणीय कौन तुम?
यह मैं कैसे कह सकता, सकता। कैसे हो? क्या हो? इसका तो- ,
भार विचार न सह सकता।
हे विराट! हे विश्वदेव !तुम कुछ हो,ऐसा होता भान- भान। मंद्-गंभीर-धीर-स्वर-संयुत ,
यही कर रहा सागर गान।"
"यह क्या मधुर स्वप्न-सी झिलमिल
सदय हृदय में अधिक अधीर, अधीर। व्याकुलता सी व्यक्त हो रही ,
आशा बनकर प्राण समीर।
यह कितनी स्पृहणीय बन गई , मधुर जागरण सी-छबिमान, छबिमान। स्मिति की लहरों-सी उठती है ,
नाच रही ज्यों मधुमय तान।
जीवन-जीवन की पुकार है , खेल रहा है शीतल-दाह- दाह। किसके चरणों में नत होता ,
नव-प्रभात का शुभ उत्साह।
मैं हूँ, यह वरदान सदृश क्यों , लगा गूँजने कानों में! ,
मैं भी कहने लगा, 'मैं रहूँ'
शाश्वत नभ के गानों में।
यह संकेत कर रही सत्ता , किसकी सरल विकास-मयी, मयी। जीवन की लालसा आज क्यों , इतनी प्रखर विलास-मयी?
तो फिर क्या मैं जिऊँ , और भी-, जीकर क्या करना होगा? देव बता दो, अमर-वेदना ,
लेकर कब मरना होगा?"
हरी-भरी फिर भी वैसी।
स्वर्ण शालियों की कलमें थीं , दूर-दूर तक फैल रहीं, रहीं।
शरद-इंदिरा की मंदिर की
मानो कोई गैल रही।
विश्व-कल्पना-सा ऊँचा वह , सुख-शीतल-संतोष-निदान, निदान। और डूबती-सी अचला का ,
अवलंबन, मणि-रत्न-निधान।
अचल हिमालय का शोभनतम , लता-कलित शुचि सानु-शरीर, शरीर। निद्रा में सुख-स्वप्न देखता ,
जैसे पुलकित हुआ अधीर।
उमड़ रही जिसके चरणों में , नीरवता की विमल विभूति, विभूति। शीतल झरनों की धारायें ,
बिखरातीं जीवन-अनुभूति!
उस असीम नीले अंचल में , देख किसी की मृदु मुसक्यान, मुस्कान। मानों हँसी हिमालय की है ,
फूट चली करती कल गान।
शिला-संधियों में टकरा कर , पवन भर रहा था गुंजार, गुंजार। उस दुर्भेद्य अचल दृढ़ता का ,
करता चारण-सदृश प्रचार।
संध्या-घनमाला की सुंदर , ओढे़ रंग-बिरंगी छींट, छींट। गगन-चुंबिनी शैल-श्रेणियाँ,
पहने हुए तुषार-किरीट।
विश्व-मौन, गौरव, महत्त्व की , प्रतिनिधियों से भरी विभा, विभा। इस अनंत प्रांगण में मानो मानों,
जोड़ रही है मौन सभा।
वह अनंत नीलिमा व्योम की , जड़ता-सी जो शांत रही, रही।
दूर-दूर ऊँचे से ऊँचे
निज अभाव में भ्रांत रही।
उसे दिखाती जगती का सुख,
हँसी और उल्लास अजान, अजान। मानो तुंग-तुरंग विश्व की। की, हिमगिरि की वह सुढर उठान सुघर उठान।
थी अंनत की गोद सदृश जो , विस्तृत गुहा वहाँ रमणीय, रमणीय। उसमें मनु ने स्थान बनाया ,
सुंदर, स्वच्छ और वरणीय।
पहला संचित अग्नि जल रहा , पास मलिन-द्युति रवि-कर से, से।
शक्ति और जागरण-चिन्ह-सा
लगा धधकने अब फिर से।
जलने लगा निंरतर निरंतर उनका , अग्निहोत्र सागर के तीर, तीर। मनु ने तप में जीवन अपना ,
किया समर्पण होकर धीर।
सज़ग हुई फिर से सुर-संकृति , देव-यजन की वर माया, माया। उन पर लगी डालने अपनी ,
कर्ममयी शीतल छाया।
</poem>