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|रचनाकार=जयशंकर प्रसाद
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जागरण-लोक था भूल चला,स्वप्नों का सुख-संचार हुआ,हुआ। कौतुक सा बन मनु के मन का,
वह सुंदर क्रीड़ागार हुआ।
था व्यक्ति सोचता आलस में,
चेतना सजग रहती दुहरी।
कानों के कान खोल करके,
सुनती थी कोई ध्वनि गहरी।
था व्यक्ति सोचता आलस में चेतना सजग रहती दुहरी, कानों के कान खोल करके सुनती थी कोई ध्वनि गहरी-  "प्यासा हूँ, मैं अब भी प्यासा , संतुष्ट ओध से मैं न हुआ,हुआ। आया फिर भी वह चला गया,
तृष्णा को तनिक न चैन हुआ।
 देवों की सृष्टि विलिन हुई,अनुशीलन में अनुदिन मेरे,मेरे। मेरा अतिचार न बंद हुआ ,
उन्मत्त रहा सबको घेरे।
मेरी उपासना करते वे,
मेरा संकेत विधान बना।
विस्तृत जो मोह रहा मेरा,
वह देव-विलास-वितान तना।
मेरी उपासना करते वे मेरा संकेत विधान बना, विस्तृत जो मोह रहा मेरा वह देव-विलास-वितान तना।  मैं काम, रहा सहचर उनका,उनके विनोद का साधन था,था। हँसता था और हँसाता था,
उनका मैं कृतिमय जीवन था।
 जो आकर्षण बन हँसती थी,रति थी अनादि-वासना वही,वही। अव्यक्त-प्रकृति-उन्मीलन के,
अंतर में उसकी चाह रही।
 हम दोनों का अस्तित्व रहा,
उस आरंभिक आवर्त्तन-सा।
 जिससे संसृति का बनता है,
आकार रूप के नर्त्तन-सा।
 उस प्रकृति-लता के यौवन में , उस पुष्पवती के माधव का-का। मधु-हास हुआ था वह पहला,
दो रूप मधुर जो ढाल सका।"
 "वह मूल शक्ति उठ खड़ी हुई,अपने आलस का त्याग किये,किये। परमाणु बल सब दौड़ पड़े,
जिसका सुंदर अनुराग लिये।
 कुंकुम का चूर्ण उड़ाते से , मिलने को गले ललकते से,से। अंतरिक्ष में मधु-उत्सव के,
विद्युत्कण मिले झलकते से।
वह आकर्षण, वह मिलन हुआ,
प्रारंभ माधुरी छाया में।
जिसको कहते सब सृष्टि,बनी
मतवाली माया में।
वह आकर्षण, वह मिलन हुआ प्रारंभ माधुरी छाया में, जिसको कहते सब सृष्टि, बनी मतवाली माया में।  प्रत्येक नाश-विश्लेषण भी,संश्लिष्ट हुए, बन सृष्टि रही,रही। ऋतुपति के घर कुसुमोत्सव था-,
मादक मरंद की वृष्टि रही।
 भुज-लता पड़ी सरिताओं की,शैलों के गले सनाथ हुए,हुए। जलनिधि का अंचल व्यजन बना ,
धरणी के दो-दो साथ हुए।
कोरक अंकुर-सा जन्म रहा,
हम दोनों साथी झूल चले।
उस नवल सर्ग के कानन में,
मृदु मलयानिल के फूल चले।
कोरक अंकुर-सा जन्म रहा हम दोनों साथी झूल चले, उस नवल सर्ग के कानन में मृदु मलयानिल के फूल चले,  हम भूख-प्यास से जाग उठे,आकांक्षा-तृप्ति समन्वय में,में। रति-काम बने उस रचना में जो ,
रही नित्य-यौवन वय में?'
 "सुरबालाओं की सखी रही,
उनकी हृत्त्री की लय थी
 रति, उनके मन को सुलझाती,
वह राग-भरी थी, मधुमय थी।
 
मैं तृष्णा था विकसित करता,
 
वह तृप्ति दिखती थी उनकी,
 
आनन्द-समन्वय होता था
 
हम ले चलते पथ पर उनको।
 
वे अमर रहे न विनोद रहा,
 चेतना रही, अनंग हुआ,हुआ। हूँ भटक रहा अस्तित्व लिये ,
संचित का सरल प्रंसग हुआ।"
 "यह नीड़ मनोहर कृतियों का,यह विश्व कर्म रंगस्थल है,है। है परंपरा लग रही यहाँ,
ठहरा जिसमें जितना बल है।
 
वे कितने ऐसे होते हैं
 जो केवल साधन बनते हैं,हैं। आरंभ और परिणामों को ,
संबध सूत्र से बुनते हैं।
 ऊषा की सज़ल गुलाली जो,  जो घुलती है नीले अंबर मेंमें। वह क्या? क्या तुम देख रहे,
वर्णों के मेघाडंबर में?
 अंतर है दिन औ 'रजनी का यह , साधक-कर्म बिखरता है,है। माया के नीले अंचल में,
आलोक बिदु-सा झरता है।"
  "आरंभिक वात्या-उद्गम मैं , अब प्रगति बन रहा संसृति का,का। मानव की शीतल छाया में,
ऋणशोध करूँगा निज कृति का।
  दोनों का समुचित परिवर्त्तन , जीवन में शुद्ध विकास हुआ,हुआ। प्रेरणा अधिक अब स्पष्ट हुई,
जब विप्लव में पड़ ह्रास हुआ।
 यह लीला जिसकी विकस चली,वह मूल शक्ति थी प्रेम-कला,कला। उसका संदेश सुनाने को ,
संसृति में आयी वह अमला।
 हम दोनों की संतान वही-,कितनी सुंदर भोली-भाली,भाली। रंगों ने जिनसे जिससे खेला हो,
ऐसे फूलों की वह डाली।
 जड़-चेतनता की गाँठ वही,
सुलझन है भूल-सुधारों की।
 वह शीतलता है शांतिमयी,
जीवन के उष्ण विचारों की।
 उसको पाने की इच्छा हो तो , "योग्य बनो"-कहती-कहती,वह ध्वनि चुपचाप हुई सहसा,
जैसे मुरली चुप हो रहती।
 
मनु आँख खोलकर पूछ रहे-
"पथ कौन वहाँ पहुँचाता है?
उस ज्योतिमयी को देव कहो,
कैसे कोई नर पाता है?"
"पंथ कौन वहाँ पहुँचाता है? उस ज्योतिमयी को देव कहो कैसे कोई नर पाता?"  पर कौन वहाँ उत्तर देता,वह स्वप्न अनोखा भंग हुआ,हुआ। देखा तो सुंदर प्राची में,
अरूणोदय का रस-रंग हुआ।
 उस लता कुंज की झिल-मिल से,हेमाभरश्मि थी खेल रही,रही। देवों के सोम-सुधा-रस की,
मनु के हाथों में बेल रही।