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|रचनाकार=जयशंकर प्रसाद
}}
"कालिमा धुलने लगी
घुलने लगा आलोक,आलोक।
इसी निभृत अनंत में
इस निशामुख की मनोहर
सुधामय मुसक्यान,मुस्कान।
देख कर सब भूल जायें
दुख दुःख के अनुमान।
देख लो, ऊँचे शिखर का
व्योम-चुबंन-व्यस्त-व्यस्त।
लौटना अंतिम किरण का
चलो तो इस कौमुदी में
देख आवें आज,आज।
प्रकृति का यह स्वप्न-शासन,
सृष्टि हँसने लगी
आँखों में खिला अनुराग,अनुराग।
राग-रंजित चंद्रिका थी,
उड़ा सुमन-पराग।
और हँसता था अतिथि
मनु का पकड़कर हाथ,हाथ।
चले दोनों स्वप्न-पथ में,
स्नेह-संबल साथ।
देवदारु निकुंज गह्वर
सब सुधा में स्नात,स्नात।
सब मनाते एक उत्सव
आ रही थी मदिर भीनी
माधवी की गंध,गंध।
पवन के घन घिरे पड़ते थे
शिथिल अलसाई पड़ी
छाया निशा की कांत-कांत।
सो रही थी शिशिर कण की
उसी झुरमुट में हृदय की
भावना थी भ्रांत,भ्रांत।
जहाँ छाया सृजन करती
कहा मनु ने "तुम्हें देखा
अतिथि! कितनी बार,बार।
किंतु इतने तो न थे
पूर्व-जन्म कहूँ कि था
स्पृहणीय मधुर अतीत,अतीत।
गूँजते जब मदिर घन में
भूल कर जिस दृश्य को
मैं बना आज़ अचेत,अचेत।
वही कुछ सव्रीड,
सस्मित कर रहा संकेत।
"मैं तुम्हारा हो रहा हूँ"
यही सुदृढ विचार'विचार।
चेतना का परिधि
है काँपती सुकुमार?
पवन में है पुलक,
मथंर चल रहा मधु-भार।
आज क्यों संदेह होता
रूठने का व्यर्थ,व्यर्थ।
क्यों मनाना चाहता-सा
धमनियों में वेदना-
सा रक्त का संचार,संचार।
हृदय में है काँपती
धड़कन, लिये लघु भारभार।
चेतना रंगीन ज्वाला
परिधि में सांनद,सानंद।
मानती-सी दिव्य-सुख
है भरी उत्साह,
और जीवित हैं, है
न छाले हैं न उसमें दाह।
कौन हो तुम-माया-
कुहुक-सी साकार,साकार।
प्राण-सत्ता के मनोहर
हृदय जिसकी कांत छाया
में लिये निश्वास,निश्वास।
थके पथिक समान करता
श्याम-नभ में मधु-किरण-सा
फिर वही मृदु हास,हास।
सिंधु की हिलकोर
कुंज में गुंजरितगुँजरित
कोई मुकुल सा अव्यक्त-अव्यक्त।
लगा कहने अतिथि,
मनु थे सुन रहे अनुरक्त-अनुरक्त।
"यह अतृप्ति अधीर मन की,
क्षोभयुक्त उन्माद,उन्माद।
सखे! तुमुल-तरंग-सा
मत कहो, पूछो न कुछ,
देखो न कैसी मौन,मौन।
विमल राका मूर्ति बन कर
विभव मतवाली प्रकृति का
आवरण वह नील,नील।
शिथिल है, जिस पर बिखरता
प्रचुर मंगल खील,खील।
राशि-राशि नखत-कुसुम की
अर्चना अश्रांतअश्रांत।
बिखरती है, तामरस
मनु निखरने लगे
ज्यों-ज्यों यामिनी का रूप,रूप।
वह अनंत प्रगाढप्रगाढ़
छाया फैलती अपरूप,अपरूप।
बरसता था मदिर कण-सा
स्वच्छ सतत अनंत,अनंत।
मिलन का संगीत
छूटती चिनगारियाँचिंगारियाँ
उत्तेजना उद्भ्रांत।
धधकती ज्वाला मधुर,
था वक्ष विकल अशांत।
वातचक्र समान कुछ
था बाँधता आवेश,आवेश।
धैर्य का कुछ भी न
कर पकड़ उन्मुक्त से
हो लगे कहने "आज,
देखता हूँ दूसरा कुछ
जन्म संगिनी एक थी
जो कामबाला नाम-नाम।
मधुर श्रद्धा था, था
हमारे प्राण को विश्राम-विश्राम।
सतत मिलता था उसी से,
अरे जिसको फूलफूल।
दिया करते अर्ध में
प्रलय मे में भी बच रहे हम
फिर मिलन का मोदमोद।
रहा मिलने को बचा,
सूने जगत की गोद।
ज्योत्स्ना सी निकल आई!
पार कर नीहार,नीहार।
प्रणय-विधु है खड़ा
कुटिल कुतंक से बनाती
कालमाया जाल-जाल।
नीलिमा से नयन की
नींद-सी दुर्भेद्य तम की,
फेंकती यह दृष्टि,दृष्टि।
स्वप्न-सी है बिखर जाती
हुई केंद्रीभूत-सी है
साधना की स्फूर्त्ति,स्फूर्ति।
दृढ-सकल सुकुमारता में
रम्य नारी-मूर्त्ति।मूर्ति।
दिवाकर दिन या परिश्रम
का विकल विश्रांतविश्रांत।
मैं पुरूषपुरुष, शिशु सा भटकता
आज तक था भ्रांत।
चंद्र की विश्राम राका
बालिका-सी कांत,कांत।
विजयनी सी दीखती
पददलित सी थकी
व्रज्या ज्यों सदा आक्रांत,आक्रांत।
शस्य-श्यामल भूमि में
आह! वैसा ही हृदय का
बन रहा परिणाम,परिणाम।
पा रहा आज देकर
धूम-लतिका सी गगन-तरूतरु
पर न चढती दीन,दीन।
दबी शिशिर-निशीथ में
झुक चली सव्रीड
वह सुकुमारता के भार,भार।
लद गई पाकर पुरूष पुरुष का
नर्ममय उपचार।
और वह नारीत्व का जो
मूल मधु अनुभाव,अनुभाव।
आज जैसे हँस रहा
मधुर व्रीडा-मिश्र
चिंता साथ ले उल्लास,उल्लास।
हृदय का आनंद-कूज़न
गिर रहीं पलकें,
झुकी थी नासिका की नोक,नोक।
भ्रूलता थी कान तक
स्पर्श करने लगी लज्जा
ललित कर्ण कपोल,कपोल।
खिला पुलक कदंब सा
समर्पण आज का हे देव!
बनेगा-चिर-बंध-
नारी-हृदय-हेतु-सदैव।