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|रचनाकार=जयशंकर प्रसाद
}}
"फूलों की कोमल पंखुडियाँ
बिखरें जिसके अभिनंदन में,में।
मकरंद मिलाती हों अपना
स्वागत के कुंकुम चंदन में,में।
कोमल किसलय मर्मर-रव-से
जिसका जयघोष सुनाते हों,हों।
जिसमें दुख-सुख मिलकर
मन के उत्सव आनंद मनाते हों,हों।
मैं उसी चपल की धात्री हूँ,
गौरव महिमा हूँ सिखलाती,सिखलाती।
ठोकर जो लगने वाली है
उसको धीरे से समझाती,समझाती।
मैं देव-सृष्टि की रति-रानी
निज पंचबाण से वंचित हो,हो।
बन आवर्जना-मूर्त्ति दीना
अपनी अतृप्ति-सी संचित हो,हो।
अवशिष्ट रह गई अनुभव में
अपनी अतीत असफलता-सी,सी।
लीला विलास की खेद-भरी
अवसादमयी श्रम-दलिता-सी,सी।
मैं रति की प्रतिकृति लज्जा हूँ
मैं शालीनता सिखाती हूँ,हूँ।
मतवाली सुंदरता पग में
नूपुर सी लिपट मनाती हूँ,हूँ।
लाली बन सरल कपोलों में
आँखों में अंजन सी लगती,लगती।
कुंचित अलकों सी घुंघराली
मन की मरोर बनकर जगती,जगती।
चंचल किशोर सुंदरता की मैं
मैं करती रहती रखवाली,रखवाली।
मैं वह हलकी सी मसलन हूँ
यह आज समझ तो पाई हूँ
मैं दुर्बलता में नारी हूँ,हूँ।
अवयव की सुंदर कोमलता
अपना ही होता जाता है,
घनश्याम-खंड-सी आँखों में क्यों क्यों सहसा जल भर आता है?
सर्वस्व-समर्पण करने की
विश्वास-महा-तरू-छाया में,में।
चुपचाप पड़ी रहने की क्यों
छायापथ में तारक-द्युति सी
झिलमिल करने की मधु-लीला,लीला।
अभिनय करती क्यों इस मन में
निस्संबल होकर तिरती हूँ
इस मानस की गहराई में,में।
चाहती नहीं जागरण कभी
नारी जीवन का चित्र यही , क्या?
विकल रंग भर देती हो,
रूकती हूँ और ठहरती हूँ
पर सोच-विचार न कर सकती,सकती।
पगली सी कोई अंतर में
मैं जब भी तोलने का करती
उपचार स्वयं तुल जाती हूँहूँ।
भुजलता फँसा कर नर-तरू तरु से
झूले सी झोंके खाती हूँ।
इस अर्पण में कुछ और नहीं
केवल उत्सर्ग छलकता है,है।
मैं दे दूँ और न फिर कुछ लूँ,
इतना ही सरल झलकता है।"
" क्या कहती हो ठहरो नारी!
संकल्प अश्रु-जल-से-अपने-अपने।
तुम दान कर चुकी पहले ही
नारी! तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास-रजत-नग पगतल में,में।
पीयूष-स्रोत-सी बहा करो
देवों की विजय, दानवों की
हारों का होता-युद्ध रहा,रहा।
संघर्ष सदा उर-अंतर में जीवित
आँसू से भींगे अंचल पर मन का मन का सब कुछ रखना होगा-
तुमको अपनी स्मित रेखा से
यह संधिपत्र लिखना होगा।