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|रचनाकार=राजू सारसर ‘राज’संजय आचार्य वरुण
|अनुवादक=
|संग्रह=म्हारै पांती रा सुपना मुट्ठी भर उजियाळौ / राजू सारसर ‘राज’संजय आचार्य वरुण
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<poem>
हे परमात्मा
थनै आ कांई सूझी ?
क्यूं बणा न्हांख्यौ
तू म्हनै एक मिनख
जे थनै कीं न कीं
बणाणौ जरूरी ही हौ
तो तू म्हनै
बजाय मिनख रै
बणा देतौ
एक पत्थर
एक भाठौ।
तू नीं जाणें
इण संसार में
भाठौ हुयर रैवण सूं
कीं घणौ ओखौ है
मिनख हुय’र जीवणौ।
जे म्हैं भाठौ हुवतौ
तो म्हारै रूं रूं में
दरद नीं बैंवतौ
अर नीं ही
म्हंारी पोर पोर में
फूटती पीड़
भलां ई मारग में पड्यौ
खावतौ ठोकरां
पण, मिनख बण’र
आपरै हेताळुवां री
ठोकरां रौ दरद
कीं घणौ जानलेवा हुवै।
 
भाठौ बण’र भी
जे भाग कीं ठीकठाक हुंवता
तो किणी कलाकार रै
हाथ लाग जावातौ
अर म्हनै भी मिल जावतौ।
थारै दांई
राम या किसन जी रौ
उणियारौ।
 
अर नीं भी बणतौ भगवान
तो भी रूखां रै हेठै
उण रै हेत री
छिया तो मिल जावती।
 
पण, नीं भगवान
ओ काम तू कांई कर्यौ?
म्हनै मिनख वणा दियौ
थनै ना सही
म्हनै घणौ अफसोस है।
</poem>
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