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05:16, 27 फ़रवरी 2015 {{KKGlobal}}
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<poem>
समधां रै
घटाटोप मांय
अमूजती आत्मा
खाली सूकै ताळ री
भुरभुरावती माटी मांय
सूंघणौ चावै दबियौड़ी
बा सौंधी सौंधी गंध
जद कि दूर दूर तांई
लाम्बै चवड़ै फैल्योड़ै
मरूथळ ज्यूं आभै मांय
बादळ रो
कोई फवौ तक नीं दीखै
अर नीं ई पंखैरूआं री
भैळी लैण्यां
जाणू हूं
सुकावट‘ई सुकावट है
च्यांरूमैर
तद‘ई तो
सौंधी सौंधी गन्ध
भुरभुरावती माटी मांय
सूंघण री म्हारी लालसा
क्या अकैकारी है ?
</poem>
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