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05:16, 27 फ़रवरी 2015 {{KKGlobal}}
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ऊजळौ नीं
गूगळौ है अबार
चै‘रो अकास रो
मुण्डौ लुकावणै री
डरूफरू हालत मांय
जकड़ीज्यौड़ी
जमीन म्हारी
बेखबर सी करती खबरदार
बळबळती लूआं री
तीखी चिणगार्यां
तळ रैई है काळजा
आखी जिया जूण रा
म्हैं अेक
सूनी पुराणी कुटिया रै सायरै
उगै पीपळ रै हैठै
कांपता चीखता
पत्तां री डरावणी अवाज सागै
सैंगमैंग हुयौड़ौ
काठी आंख्यां मींच
उजाळै रै बगत सारू
जपू हूं विष्णुसैस्त्रनांव
क्या मिटैला
अकास रो गूगळौ रंग
क्या मिटैला
म्हारी धरती रो सुबकणौ
कांपतौ मन पूछै
धूजती आत्मा नै
सायत्...हां
सायत्...नीं
सायत..सायत..सायत
म्हैं बंद करू
पाठ री पौथी
फैर खोलू......फैर बंद....फैर...फैर....फैर
संसय अर नैचै रै बिचाळै
उखड़ती थमती सांसा नै
थपकी दैवणौ‘ई
नीं हुवै है
जीवण जीणै री कला रो
दूजो नांव
म्हैं ताक हूं फैर
गूगळौ अकास
सैम्यौड़ी म्हारी धरती
अर विष्णुसैस्त्रनांव री पौथी
</poem>
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