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करूणा-कुंज / जयशंकर प्रसाद

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क्लान्त हुआ सब अंग शिथिल क्यों वेश वेष है
मुख पर श्रम-सीकर का भी उन्मेष है
भारी भोझा लाद लिया न सँभार है
छल छालों से पैर छिले न उबार है
कुसुम-वाहना प्रकृति मनोज्ञ वसन्त है
मलयज मारूत प्रेम-भरा छविवन्त है
खिली कुसुम की कली अलीगणा अलीगण घूमते
मद-माते पिक-पुंज मंज्जरी चूमते
तुम तो अविरत चले जा रहे हो कहीं
तुम्हें सुघर से दृष्य दृश्‍य दिखाते हैं नहीं
शरद-शर्वरी शिशिर-प्रभंजन-वेग में
चलना है अविराम तुम्हें उद्वेग में
त्रस्त पथिक, देखो करूणा विश्‍वेश की
खड़ी दिलाती तुम्हें याद हृदयेश की
शाीतापत शाीतातप की भीति सता सकती नहीदुख तो उसका पता न पा सकता कहीं
भ्रान्त शान्त पथिकों का जीवन-मूल है
इसका ध्यान मिटा देना सब भूल है
कुसुमित मधुमय जहाँ सुखद अलिपुज्ज अलिपुंज है
शान्त-हेतु वह देखो ‘करूणा-कुंज है
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