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भावना / प्रवीण काश्‍यप

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|संग्रह=विषदंती वरमाल कालक रति / प्रवीण काश्‍यप
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<poem>
कनिको आभास रहैत लुटि जएबाक
त नहि अनितहुँ सं सजाकऽ
प्रेम आ ममताक आभूषण सँ;
युवती हँ युवतीये त छलि हमर भावना!

भावना, मर्म ओ अनुरागक देवी भावना!
दिव्यलोकक चकाचोन्हि सँ निकलि,
अनायास हमर हाथ थामि, चलि आएलि भावना!
हम मूर्ख, अज्ञानी, गर्व सँ चूर, सोचल नहि?
कतऽ लऽ क’ चलि रहल छी हम भावना?

कदाचित् निस्पाप मन, निस्काम तन,
छल कोमल, मधु-मद युक्त नवयौवना भावना!
हमर अन्तस् केँ जानि, पौरूष केँ परेखि,
निज स्वामी मानि, संग भऽ गेलि भावना!

एहि ठाम आबि, छवि ओ टूटि गेल!
रूसि गेलि, हमर सद्यः-स्नाता अपूर्वा-भावना!
भीरूता जे लगैत छल हमरा धीरता!
हम क्लांत कयलहुँ अपन निज भावना!
बलात्कार कयलन्हि सभ, विद्वान मनीषी
बहुत अयलाह, सभक छल एकमात्र कामना-भावना!
हम देखल, अहाँ कनलहुँ, छटपटेलहुँ,
आ नितान्त चुप, चुप भऽ गेलहुँ, हमर भावना
हमर भावना!
</poem>
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