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आच्छादन / प्रवीण काश्‍यप

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|संग्रह=विषदंती वरमाल कालक रति / प्रवीण काश्‍यप
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<poem>
ई हवा हमरे सँ बहि कऽ अहाँ धरि जायत;
अपन बहाव में ई हमर पुरूषार्थक गंध सँ
अहाँक स्त्रीत्वक रजोगुण कें जगाओत;
ई हवा हमरे सँ बहि कऽ अहाँ धरि जायत।

अपन सड़ल गर्मी में जँ, जँ सूरज
अपन ताम सँ हमर गर्मी आ गंध कें बढ़ाओत
तँ, तँ ई उत्ताप मात्र अहाँक अधर कें
हमर लवणीय उन्माद सँ बहकाओत!
ई हवा हमरे सँ बहि कऽ अहाँ धरि जायत

किंचित एहि मेघाच्छादित आकाशक
प्रसव-घड़ी नहि आयल अछि
मुदा वृष्टिक वेदना संजोने
एकर नीन्न उरल अवश्य छैक!
नीन्न उरल अछि हमरो सभक
मुदा शुष्क नहि पूर्णतः आद्रता
व्याप्त अछि अपन भुजबंध मे।
एहि रससिद्ध श्वेदक अतिवृष्टि
अपन देहात्मीय प्रेमक स्नेहकता कें
आओर कोमल बनाओत।
ई हवा हमरे सँ बहि कऽ अहाँ धरि जायत

किछु हिंसक प्रश्नक दिशा
जे अहाँ अपना दिस कयने छी!
प्रिया! अहाँ छोडू अपन जिद्द कें
कियेक त एहि सर्पबाणक विषदंत
हमरे अस्थिमज्जा कें गला कऽ
अहाँ धरि पहुँचत।
ई हवा हमरे सँ बहि कऽ अहाँ धरि जायत
ई हवा हमरे सँ............
</poem>
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