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12:03, 4 अप्रैल 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=प्रतिभा सक्सेना
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<poem>
वही बावन अक्षर .
गिनी-चुनी मात्राएँ और
थोड़े से विराम चिह्न .
शब्द भी कोश में संचित, अर्थ सहित.
सबके पास यही पूँजी.
*
आगे सब-कुछ भिन्न,
हाथ बदला कि-
व्यंजनों के स्वाद बदले,
स्वरों के राग बदले.
वही चेत-
कितने रूपों, कितने रंगों में,
कितने प्रसंगों में:
और सारा का सारा प्रभाव,
एकदम भिन्न!
*
विषय को छोड़,
व्यक्ति को
लिखने लगती है भाषा.
सारे आवरण धरे रह जाते हैं .
वही शब्द, कुछ कहते
कुछ और कह जाते हैं,
मनोजगत का सारा एकान्त,
बिंबित कर,
दर्पण बन जाते हैं!
*
</poem>