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07:33, 5 अप्रैल 2015 {{KKRachna
|रचनाकार=श्रीनाथ सिंह
|अनुवादक=
|संग्रह=
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<poem>
गर्मी के हैं मजे निराले,
लगे पाठशालों में ताले।
नहीं गुरूजी का अब डर है,
खेल हो रहा पानी पर है।
घंटो रोज नहाते हैं अब,
छाया में सुख पाते हैं अब।
खाते खुश हो बरफ मलाई,
पीते शरबत और ठंडाई।
है बहार आमों की आई,
तरबूजों की हूई चढ़ाई।
गली गली बिकता खरबूजा,
छिपा पसीने में भड़भूजा।
पग पग पर दूल्हे सजते हैं,
होते ब्याह बैंड बजते हैं।
नित्य नई हम दावत पाते,
दलबल से हैं खाने जाते।
कभी कभी आँधी आती है,
धूल गगन में छा जाती है।
झरझर झरझर ,सरसर सरसर,
पेड़ उखड़ते उड़ते झप्पर।
आधी रात फूलता बेला,
तारों का लग जाता मेला।
सुख से तब दुनियाँ सोती है,
सपनो की वर्षा होती है।
गर्मी है इतनी सुखकारी,
हाँ पर एक ऐब है भारी।
लंका सी पृथ्वी जलती है,
जाने यह किसकी गलती है।
</poem>