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17:39, 22 अप्रैल 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=नरेश कुमार विकल
|संग्रह=अरिपन / नरेश कुमार विकल
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<poem>
हट्ठा मे हरबाह झुकैये
हाथ मे धयने हऽर यौ।
कोना कें बाँचत लाजई तनकें
कोना कें जाएब घऽर यौ।
कोना कें भेंटत रोजी-रोटी
कोना कें कपड़ा-घऽर यौ।
कुसुमित कानन कुंज क्लेशक
छै कयने श्रृंगार यौ
चान इजोरिया बाँटि रहल छै
मुदा ने थिक उपहार यौ।
आइ पलासक पल्लव पल-पल
बदलै रूप-अनुप यौ
सिंगरहार श्रृंगार सजौने
आँखि मे अश्रुक धार यौ।
कोना जानकी जनकक खुट्टा-
मे बान्हल रहती मुंह चुरू
दशरथ रामक मोल करै छथि
माँगै छथि कै-कै हजार यौ।
चासो भले उदास रौद सँ
परती भेल पाथर सन बज्जर
गंगाजल मे घोरल विष छै
यमुना कें फुफकार यौ।
</poem>