{{KKRachna
|रचनाकार=मलिक मोहम्मद जायसी
|अनुवादक=|संग्रह=पद्मावत / मलिक मोहम्मद जायसी}} <poem>का सिंगार ओहि बरनौं, राजा । ओहिक सिंगार ओहि पै छाजा ॥प्रथम सीस कस्तूरी केसा । बलि बासुकि, का और नरेसा ॥भौंर केस, वह मालति रानी । बिसहर लुरे लेहिं अरघानी ॥बेनी छोरि झार जौं बारा । सरग पतार होइ अँधियारा ॥कोंपर कुटिल केस नग कारे । लहरन्हि भरे भुअंग बैसारे ॥बेधे जनों मलयगिरि बासा । सीस चढे लोटहिं चहँ पासा ॥घुँघरवार अलकै विषभरी । सँकरैं पेम चहैं गिउ परी ॥
'''मुखपृष्ठ: [[पद्मावत / मलिक मोहम्मद जायसी]]'''अस फदवार केस वै परा सीस गिउ फाँद ।अस्टौ कुरी नाग सब अरुझ केस के बाँद ॥1॥
बरनौं माँग सीस उपराहीं । सेंदुर अबहिं चढा जेहि नाहीं ॥
बिनु सेंदुर अस जानहु दीआ । उजियर पंथ रैनि महँ कीआ ॥
कंचन रेख कसौटी कसी । जनु घन महँ दामिनि परगसी ॥
सरु-किरिन जनु गगन बिसेखी । जमुना माँह सुरसती देखी ॥
खाँडै धार रुहिर नु भरा । करवत लेइ बेनी पर धरा ॥
तेहि पर पूरि धरे जो मोती । जमुना माँझ गंग कै सोती ॥
करवत तपा लेहिं होइ चूरू । मकु सो रुहिर लेइ देइ सेंदूरू ॥
का सिंगार ओहि बरनौं, राजा । ओहिक सिंगार ओहि पै छाजा ॥<br>प्रथम सीस कस्तूरी केसा । बलि बासुकि, का और नरेसा ॥<br>भौंर केस, कनक दुवासन बानि होइ चह सोहाग वह मालति रानी माँग । बिसहर लुरे लेहिं अरघानी ॥<br>बेनी छोरि झार जौं बारा । सरग पतार होइ अँधियारा ॥<br>कोंपर कुटिल केस नग कारे । लहरन्हि भरे भुअंग बैसारे ॥<br>बेधे जनों मलयगिरि बासा । सीस चढे लोटहिं चहँ पासा ॥<br>घुँघरवार अलकै विषभरी । सँकरैं पेम चहैं गिउ परी ॥<br><br>सेवा करहिं नखत सब उवै गगन जस गाँग ॥2॥
अस फदवार केस वै परा सीस गिउ फाँद कहौं लिलार दुइज कै जोती ।<br>दुइजन जोति कहाँ जग ओती ॥अस्टौ कुरी नाग सब अरुझ केस के बाँद ॥1॥<br><br>सहस किरिन जो सुरुज दिपाई । देखि लिलार सोउ छपि जाई ॥का सरवर तेहि देउँ मयंकू । चाँद कलंकी, वह निकलंकू ॥औ चाँदहि पुनि राहु गरासा । वह बिनु राहु सदा परगासा ॥तेहि लिलार पर तलक बईठा । दुइज-पाट जानहु ध्रुव दीठा ॥कनक-पाट जनु बैठा राजा । सबै सिंगार अत्र लेइ साजा ॥ओहि आगे थिर रहा न कोऊ । दहुँ का कहँ अस जुरै सँजोगू ॥
बरनौं माँग सीस उपराहीं । सेंदुर अबहिं चढा जेहि नाहीं ॥<br>बिनु सेंदुर अस जानहु दीआ । उजियर पंथ रैनि महँ कीआ ॥<br>कंचन रेख कसौटी कसी । जनु घन महँ दामिनि परगसी ॥<br>सरुखरग, धनुक, चक बान दुइ, जग-किरिन जनु गगन बिसेखी मारन तिन्ह नावँ । जमुना माँह सुरसती देखी ॥<br>खाँडै धार रुहिर नु भरा । करवत लेइ बेनी पर धरा ॥<br>तेहि पर पूरि धरे जो मोती । जमुना माँझ गंग सुनि कै सोती ॥<br>करवत तपा लेहिं होइ चूरू । मकु सो रुहिर लेइ देइ सेंदूरू ॥<br><br>परा मुरुछि कै (राजा) मोकहँ हए कुठावँ ॥3॥
कनक दुवासन बानि होइ चह सोहाग वह माँग भौहैं स्याम धनुक जनु ताना ।<br>जा सहुँ हेर मार विष-बाना ॥सेवा करहिं नखत सब उवै गगन जस गाँग ॥2॥<br><br>हनै धुनै उन्ह भौंहनि चढे । केइ हतियार काल अस गढे ?॥उहै धनुक किरसुन पर अहा । उहै धनुक राघौ कर गहा ॥ओहि धनुक रावन संघारा । ओहि धनुक कंसासुर मारा ॥ओहि धनुक बैधा हुत राहू । मारा ओहि सहस्राबाहू ॥उहै धनुक मैं थापहँ चीन्हा । धानुक आप बेझ जग कीन्हा ॥उन्ह भौंहनि सरि केउ न जीता । अछरी छपीं, छपीं गोपीता ॥
कहौं लिलार दुइज कै जोती भौंह धनुक, धनि धानुक, दूसर सरि न कराइ । दुइजन जोति कहाँ जग ओती ॥<br>सहस किरिन गगन धनुक जो सुरुज दिपाई । देखि लिलार सोउ ऊगै लाजहि सो छपि जाई ॥<br>का सरवर तेहि देउँ मयंकू । चाँद कलंकी, वह निकलंकू ॥<br>औ चाँदहि पुनि राहु गरासा । वह बिनु राहु सदा परगासा ॥<br>तेहि लिलार पर तलक बईठा । दुइज-पाट जानहु ध्रुव दीठा ॥<br>कनक-पाट जनु बैठा राजा । सबै सिंगार अत्र लेइ साजा ॥<br>ओहि आगे थिर रहा न कोऊ । दहुँ का कहँ अस जुरै सँजोगू ॥<br><br>जाइ ॥4॥
खरग, धनुक, चक बान दुइनैन बाँक, सरि पूज न कोऊ । मानसरोदक उथलहिं दोऊ ॥राते कँवल करहिं अलि भवाँ । घूमहिं माति चहहिं अपसवाँ ॥उठहि तुरंग लेहिं नहिं बागा । चहहिं उलथि गगन कइँ लागा ॥पवन झकोरहिं देइ हिलोरा । सरग लाइ भुइँ लाइ बहोरा ॥जग-मारन तिन्ह नावँ डोलै डोलत नैनाहाँ ।<br>उलटि अडार जाहिं पल माहाँ ॥सुनि कै परा मुरुछि कै (राजा) मोकहँ हए कुठावँ ॥3॥<br><br>जबहिं फिराहिं गगन गहि बोरा । अस वै भौंर चक्र के जोरा ॥समुद-हिलोर फिरहिं जनु झूले । खंजन लरहिं, मिरिग जनु भूले ॥
भौहैं स्याम धनुक जनु ताना सुभर सरोवर नयन वै, मानिक भरे तरंग । जा सहुँ हेर मार विष-बाना ॥<br>हनै धुनै उन्ह भौंहनि चढे । केइ हतियार आवत तीर फिरावहीं काल अस गढे ?॥<br>उहै धनुक किरसुन पर अहा । उहै धनुक राघौ कर गहा ॥<br>ओहि धनुक रावन संघारा । ओहि धनुक कंसासुर मारा ॥<br>ओहि धनुक बैधा हुत राहू । मारा ओहि सहस्राबाहू ॥<br>उहै धनुक मैं थापहँ चीन्हा । धानुक आप बेझ जग कीन्हा ॥<br>उन्ह भौंहनि सरि केउ न जीता । अछरी छपीं, छपीं गोपीता ॥<br><br>भौंर तेहिं संग ॥5॥
भौंह धनुक, धनि धानुक, दूसर सरि बरुनी का बरनौ इमि बनी । साधे बान जानु दुइ अनी ॥जुरी राम रावन कै सेना ।बीच समुद्र भए दुइ नैना ॥बारहिं पार बनावरि साधा । जा सहुँ हेर लाग विष-बाधा ॥उन्ह बानन्ह अस को जो न कराइ मारा ?।<br>बेधि रहा सगरौ संसारा ॥गगन धनुक नखत जो ऊगै लाजहि सो छपि जाइ ॥4॥<br><br>जाहिं न गने । वै सब बान ओही के हने ॥धरती बान बेधि सब राखी । साखी ठाढ देहिं सब साखी ॥रोवँ रोवँ मानुष तन ठाढे । सूतहि सूत बेध अस गाढे ॥
नैन बाँकबरुनि-बान अस ओपहँ,सरि पूज न कोऊ बेधे रन बन-ढाख । मानसरोदक उथलहिं दोऊ ॥<br>राते कँवल करहिं अलि भवाँ । घूमहिं माति चहहिं अपसवाँ ॥<br>उठहि तुरंग लेहिं नहिं बागा । चहहिं उलथि गगन कइँ लागा ॥<br>पवन झकोरहिं देइ हिलोरा । सरग लाइ भुइँ लाइ बहोरा ॥<br>जग डोलै डोलत नैनाहाँ । उलटि अडार जाहिं पल माहाँ ॥<br>जबहिं फिराहिं गगन गहि बोरा । अस वै भौंर चक्र के जोरा ॥<br>समुद-हिलोर फिरहिं जनु झूले । खंजन लरहिंसौजहिं तन सब रोवाँ, मिरिग जनु भूले ॥<br><br>पंखहि तन सब पाँख ॥6॥
सुभर सरोवर नयन वैनासिक खरग देउँ कह जोगू । खरग खीन, मानिक भरे तरंग वह बदन-सँजोगू ॥नासिक देखि लजानेउ सूआ ।<br>सूक अइ बेसरि होइ ऊआ ॥आवत तीर फिरावहीं काल भौंर तेहिं संग ॥5॥<br><br>सुआ जो पिअर हिरामन लाजा । और भाव का बरनौं राजा ॥सुआ, सो नाक कठोर पँवारी । वह कोंवर तिल-पुहुप सँवारी ॥पुहुप सुगंध करहिं एहि आसा । मकु हिरकाइ लेइ हम्ह पासा ॥अधर दसन पर नासिक सोभा । दारिउँ बिंब देखि सुक लोभा ॥खंजन दुहुँ दिसि केलि कराही । दहुँ वह रस कोउ पाव कि नाहीं ॥
बरुनी का बरनौ इमि बनी देखि अमिय-रस अधरन्ह भएउ नासिका कीर । साधे बान जानु दुइ अनी ॥<br>जुरी राम रावन कै सेना ।बीच समुद्र भए दुइ नैना ॥<br>बारहिं पार बनावरि साधा । जा सहुँ हेर लाग विष-बाधा ॥<br>उन्ह बानन्ह पौन बास पहुँचावै, अस को जो रम छाँड न मारा ?। बेधि रहा सगरौ संसारा ॥<br>गगन नखत जो जाहिं न गने । वै सब बान ओही के हने ॥<br>धरती बान बेधि सब राखी । साखी ठाढ देहिं सब साखी ॥<br>रोवँ रोवँ मानुष तन ठाढे । सूतहि सूत बेध अस गाढे ॥<br><br>तीर ॥7॥
बरुनिअधर सुरंग अमी-बान अस ओपहँ, बेधे रन रस-भरे । बिंब सुरंग लाजि बनफरे ॥फूल दुपहरी जानौं राता । फूल झरहिं ज्यों ज्यों कह बाता ॥हीरा लेइ सो विद्रुम-ढाख धारा ।<br>बिहँसत जगत होइ उजियारा ॥सौजहिं तन सब रोवाँभए मँझीठ पानन्ह रँग लागे । कुसुम -रंग थिर रहै न आगे ॥अस कै अधर अमी भरि राखे । अबहिं अछूत, पंखहि तन सब पाँख ॥6॥<br><br>न काहू चाखे ॥मुख तँबोल-रँग-धारहि रसा । केहि मुख जोग जो अमृत बसा ?॥ॉराता जगत देखि रँगराती । रुहिर भरे आछहि बिहँसाती ॥
नासिक खरग देउँ कह जोगू अमी अधर अस राजा सब जग आस करेइ । खरग खीन, वह बदन-सँजोगू ॥<br>नासिक देखि लजानेउ सूआ । सूक अइ बेसरि होइ ऊआ ॥<br>सुआ जो पिअर हिरामन लाजा । और भाव का बरनौं राजा ॥<br>सुआकेहि कहँ कवँल बिगासा, सो नाक कठोर पँवारी । वह कोंवर तिल-पुहुप सँवारी ॥<br>पुहुप सुगंध करहिं एहि आसा । मकु हिरकाइ को मधुकर रस लेइ हम्ह पासा ॥<br>अधर दसन पर नासिक सोभा । दारिउँ बिंब देखि सुक लोभा ॥<br>खंजन दुहुँ दिसि केलि कराही । दहुँ वह रस कोउ पाव कि नाहीं ॥<br><br>?॥8॥
देखि अमियदसन चौक बैठे जनु हीरा । औ बिच बिच रंग स्याम गँभीरा ॥जस भादौं-रस अधरन्ह भएउ नासिका कीर निसि दामिनि दीसी ।<br>चमकि उठै तस बनी बतीसी ॥पौन बास पहुँचावै, अस रम छाँड वह सुजोति हीरा उपराहीं । हीरा-जाति सो तेहि परछाहीं ॥जेहि दिन दसनजोति निरमई । बहुतै जोति जोति ओहि भई ॥रवि ससि नखत दिपहिं ओहि जोती । रतन पदारथ मानिक मोती ॥जहँ जहँ बिहँसि सुभावहि हँसी । तहँ तहँ छिटकि जोति परगसी ॥दामिनि दमकि न तीर ॥7॥<br><br>सरवरि पूजी । पुनि ओहि जोति और को दूजी ?॥
अधर सुरंग अमी-रस-भरे हँसत दसन अस चमके पाहन उठे झरक्कि । बिंब सुरंग लाजि बन फरे ॥<br>फूल दुपहरी जानौं राता । फूल झरहिं ज्यों ज्यों कह बाता ॥<br>हीरा लेइ सो विद्रुम-धारा । बिहँसत जगत होइ उजियारा ॥<br>भए मँझीठ पानन्ह रँग लागे । कुसुम -रंग थिर रहै दारिउँ सरि जो न आगे ॥<br>अस कै अधर अमी भरि राखे । अबहिं अछूतसका , न काहू चाखे ॥<br>मुख तँबोल-रँग-धारहि रसा । केहि मुख जोग जो अमृत बसा ?॥<br>ॉराता जगत देखि रँगराती । रुहिर भरे आछहि बिहँसाती ॥<br><br>फाटेउ हिया दरक्कि ॥9॥
अमी अधर अस राजा रसना कहौं जो कह रस बाता । अमृत-बैन सुनत मन राता ॥हरै सो सुर चातक कोकिला । बिनुबसंत यह बैन न मिला ॥चातक कोकिल रहहिं जो नाहीं । सुहि वह बैन लाज छपि जाहीं ॥भरे प्रेम-रस बोलै बोला । सुनै सो माति घूमि कै डोला ॥चतुरवेद-मत सब जग आस करेइ ओहि पाहाँ ।<br>रिग,जजु, सअम अथरबन माहाँ ॥केहि कहँ कवँल बिगासाएक एक बोल अरथ चौगुना । इंद्र मोह, को मधुकर रस लेइ ?॥8॥<br><br>बरम्हा सिर धुना ॥अमर, भागवत, पिंगल गीता । अरथ बूझि पंडित नही जीता ॥
दसन चौक बैठे जनु हीरा । भासवती औ बिच बिच रंग स्याम गँभीरा ॥<br>जस भादौं-निसि दामिनि दीसी ब्याकरन, पिंगल पढै पुरान । चमकि उठै तस बनी बतीसी ॥<br>वह सुजोति हीरा उपराहीं । हीराबेद-जाति सो तेहि परछाहीं ॥<br>जेहि दिन दसनजोति निरमई । बहुतै जोति जोति ओहि भई ॥<br>रवि ससि नखत दिपहिं ओहि जोती । रतन पदारथ मानिक मोती ॥<br>जहँ जहँ बिहँसि सुभावहि हँसी । तहँ तहँ छिटकि जोति परगसी ॥<br>दामिनि दमकि न सरवरि पूजी । पुनि ओहि जोति और को दूजी ?॥<br><br>भेद सौं बात कह, सुजनन्ह लागै बान ॥10॥
हँसत दसन अस चमके पाहन उठे झरक्कि पुनि बरनौं का सुरंग कपोला ।<br>एक नारँग दुइ किए अमोला ॥दारिउँ सरि जो न कै सका , फाटेउ हिया दरक्कि ॥9॥<br><br>पुहुप-पंक रस अमृत साँधे । केइ यह सुरँग खरौरा बाँधे ?॥तेहि कपोल बाएँ तिल परा । जेइ तिल देखि सो तिल तिल जरा ॥जनु घुँघची ओहि तिल करमुहीं । बिरह-बान साधे सामुहीं ॥अगिनि-बान जानौ तिल सूझा । एक कटाछ लाख दस झूझा ॥सो तिल गाल नहिं गएऊ । अब वह गाल काल जग भएऊ ॥देखत नैन परी परिछाहीं । तेहि तें रात साम उपराहीं ॥
रसना कहौं जो कह रस बाता । अमृत-बैन सुनत मन राता ॥<br>हरै सो सुर चातक कोकिला तिल देखि कपोल पर गगन रहा धुव गाडि । बिनुबसंत यह बैन न मिला ॥<br>चातक कोकिल रहहिं जो नाहीं । सुहि वह बैन लाज छपि जाहीं ॥<br>भरे प्रेम-रस बोलै बोला । सुनै सो माति घूमि कै डोला ॥<br>चतुरवेद-मत सब ओहि पाहाँ । रिगखिनहिं उठै खिन बूडै,जजु, सअम अथरबन माहाँ ॥<br>एक एक बोल अरथ चौगुना । इंद्र मोह, बरम्हा सिर धुना ॥<br>अमर, भागवत, पिंगल गीता । अरथ बूझि पंडित नही जीता ॥<br><br>डोलै नहिं तिल छाँडि ॥11॥
भासवती औ ब्याकरन, पिंगल पढै पुरान स्रवन सीप दुइ दीप सँवारे ।<br>कुँडल कनक रचे उजियारे ॥बेदमनि-भेद सौं बात कह, सुजनन्ह लागै बान ॥10॥<br><br>मंडल झलकैं अति लोने । जनु कौंधा लौकहि दुइ कोने ॥दुहुँ दिसि चाँद सुरुज चमकाहीं । नखतन्ह भरे निरखि नहिं जाहीं ॥तेहि पर खूँट दीप दुइ बारे । दुइ धुव दुऔ खूँट बैसारे ॥पहिरे खुंभी सिंगलदीपी । जनौं भरी कचपचिआ सीपी ॥खिन खिन जबहि चीर सिर गहै । काँपति बीजु दुऔ दिसि रहै ॥डरपहिं देवलोक सिंघला । परै न बीजु टूटि एक कला ॥
पुनि बरनौं का सुरंग कपोला करहिं नखत सब सेवा स्रवन दीन्ह अस दोउ । एक नारँग दुइ किए अमोला ॥<br>पुहुप-पंक रस अमृत साँधे । केइ यह सुरँग खरौरा बाँधे चाँद सुरुज अस गोहने और जगत का कोउ ?॥<br>तेहि कपोल बाएँ तिल परा । जेइ तिल देखि सो तिल तिल जरा ॥<br>जनु घुँघची ओहि तिल करमुहीं । बिरह-बान साधे सामुहीं ॥<br>अगिनि-बान जानौ तिल सूझा । एक कटाछ लाख दस झूझा ॥<br>सो तिल गाल नहिं गएऊ । अब वह गाल काल जग भएऊ ॥<br>देखत नैन परी परिछाहीं । तेहि तें रात साम उपराहीं ॥<br><br>॥12॥
सो तिल देखि कपोल पर गगन रहा धुव गाडि बरनौं गीउ कंबु कै रीसी ।<br>कंचन-तार-लागि जनु सीसी ॥खिनहिं उठै खिन बूडै, डोलै नहिं तिल छाँडि ॥11॥<br><br>कुंदै फेरि जानु गिउ काढी । हरी पुछार ठगी जनु ठाढी ॥जनु हिय काढि परवा ठाढा । तेहि तै अधिक भाव गिउ बाढा ॥चाक चढाइ साँच जनु कीन्हा । बाग तुरंग जानु गहि लीन्हा ॥गए मयूर तमचूर जो हारे । उहै पुकारहिं साँझ सकारे ॥पुनि तेहि ठाँव परी तिनि रेखा । घूँट जो पीक लीक सब देखा ॥धनि ओहि गीउ दीन्ह बिधि भाऊ । दहुँ कासौं लेइ करै मेराऊ ॥
स्रवन सीप दुइ दीप सँवारे कंटसिरी मुकुतावली सोहै अभरन गीउ । कुँडल कनक रचे उजियारे ॥<br>मनि-मंडल झलकैं अति लोने । जनु कौंधा लौकहि दुइ कोने ॥<br>दुहुँ दिसि चाँद सुरुज चमकाहीं । नखतन्ह भरे निरखि नहिं जाहीं ॥<br>तेहि पर खूँट दीप दुइ बारे । दुइ धुव दुऔ खूँट बैसारे ॥<br>पहिरे खुंभी सिंगलदीपी । जनौं भरी कचपचिआ सीपी ॥<br>खिन खिन जबहि चीर सिर गहै । काँपति बीजु दुऔ दिसि रहै ॥<br>डरपहिं देवलोक सिंघला । परै न बीजु टूटि एक कला ॥<br><br>लागै कंठहार होइ को तप साधा जीउ ?॥13॥
करहिं नखत सब सेवा स्रवन दीन्ह अस दोउ कनक-दंड दुइ भुजा कलाई ।<br>जानौं फेरि कुँदेरै भाई ॥चाँद सुरुज अस गोहने और जगत का कोउ ?॥12॥<br><br>कदलि-गाभ कै जानौ जोरी । औ राती ओहि कँवल-हथोरी ॥जानो रकत हथोरी बूडी । रवि-परभात तात, वै जूडी ॥हिया काढि जनु लीन्हेसि हाथा । रुहिर भरी अँगुरी तेहि साथा ॥औ पहिरे नग-जरी अँगूठी । जग बिनु जीउ,जीउ ओहि मूठी ॥ बाहूँ कंगन, टाड सलोनी । डोलत बाँह भाव गति लोनी ॥जानौ गति बेडिन देखराई । बाँह डोलाइ जीउ लेइ जाई ॥
बरनौं गीउ कंबु कै रीसी । कंचनभुज -तार-लागि जनु सीसी ॥<br>कुंदै फेरि जानु गिउ काढी । हरी पुछार ठगी जनु ठाढी ॥<br>जनु हिय काढि परवा ठाढा । उपमा पौंनार नहिं, खीन भयउ तेहि तै अधिक भाव गिउ बाढा ॥<br>चाक चढाइ साँच जनु कीन्हा चिंत । बाग तुरंग जानु गहि लीन्हा ॥<br>गए मयूर तमचूर जो हारे । उहै पुकारहिं साँझ सकारे ॥<br>पुनि तेहि ठाँवहि ठाँव परी तिनि रेखा । घूँट जो पीक लीक सब देखा ॥<br>धनि ओहि गीउ दीन्ह बिधि भाऊ । दहुँ कासौं बेध भा, ऊबि साँस लेइ करै मेराऊ ॥<br><br>निंत ॥14॥
कंटसिरी मुकुतावली सोहै अभरन गीउ हिया थार, कुच कंचन लारू ।<br>कनक कचौर उठे जनु चारू ॥लागै कंठहार कुंदन बेल साजि जनु कूँदे । अमृत रतन मोन दुइ मूँदे ॥बेधे भौंर कंट केतकी । चाहहिं बेध कीण्ह कंचुकी ॥जोबन बान लेहिं नहिं बागा । चाहहिं हुलसि हिये हठ लागा ॥अगिनि-बान दुइ जानौं साधे । जग बेधहिं जौं होहिं न बाँधे ॥उतँग जँभीर होइ रखवारी । छुइ को तप साधा जीउ ?॥13॥<br><br>सकै राजा कै बारी ॥दारउँ दाख फरे अनचाखे । अस नारँग दहुँ का कहँ राखे ॥
कनक-दंड दुइ भुजा कलाई राजा बहुत मुए तपि लाइ लाइ भुइँ माथ । जानौं फेरि कुँदेरै भाई ॥<br>कदलि-गाभ कै जानौ जोरी । औ राती ओहि कँवल-हथोरी ॥<br>जानो रकत हथोरी बूडी । रवि-परभात तातकाहू छुवै न पाए , वै जूडी ॥<br>हिया काढि जनु लीन्हेसि हाथा । रुहिर भरी अँगुरी तेहि साथा ॥<br>औ पहिरे नग-जरी अँगूठी । जग बिनु जीउ,जीउ ओहि मूठी ॥ <br>बाहूँ कंगन, टाड सलोनी । डोलत बाँह भाव गति लोनी ॥<br>जानौ गति बेडिन देखराई । बाँह डोलाइ जीउ लेइ जाई ॥<br><br>गए मरोरत हाथ ॥15॥
भुज पेट परत जनु चंदन लावा । कुहँकुहँ-उपमा पौंनार नहिं, खीन भयउ तेहि चिंत केसर-बरन सुहावा ॥खीर अहार न कर सुकुवाँरा ।<br>पान फूल के रहै अधारा ॥ठाँवहि ठाँव बेध भासाम भुअंगिनि रोमावली । नाभी निकसि कवँल कहँ चली ॥आइ दुऔ नारँग बिच भई । देखि मयूर ठमकि रहि गई ॥मनहुँ चढी भौंरन्ह पाँती । चंदन-खाँभ बास कै माती ॥की कालिंदी बिरह-सताई । चलि पयाग अरइल बिच आई ॥नाभि-कुंड बिच बारानसी । सौंह को होइ, ऊबि साँस लेइ निंत ॥14॥<br><br>मीचु तहँ बसी ॥
हिया थारसिर करवत, कुच कंचन लारू तन करसी बहुत सीझ तन आस । कनक कचौर उठे जनु चारू ॥<br>कुंदन बेल साजि जनु कूँदे । अमृत रतन मोन दुइ मूँदे ॥<br>बेधे भौंर कंट केतकी । चाहहिं बेध कीण्ह कंचुकी ॥<br>जोबन बान लेहिं नहिं बागा । चाहहिं हुलसि हिये हठ लागा ॥<br>अगिनि-बान दुइ जानौं साधे । जग बेधहिं जौं होहिं बहुत धूम घुटि घुटि मिए, उतर न बाँधे ॥<br>उतँग जँभीर होइ रखवारी । छुइ को सकै राजा कै बारी ॥<br>दारउँ दाख फरे अनचाखे । अस नारँग दहुँ का कहँ राखे ॥ <br><br>देइ निरास ॥16॥
राजा बहुत मुए तपि लाइ लाइ भुइँ माथ बैरिनि पीठि लीन्ह वह पाछे ।<br>जनु फिरि चली अपछरा काछे ॥काहू छुवै न पाए मलयागिरि कै पीठि सँवारी । बेनी नागिनि चढी जो कारी ॥ लहरैं देति पीठि जनु चढी । ...........केंचुली मढी ॥दहुँ का कहँ अस बेनी कीन्हीं । चंदन बास भुअंगै लीन्हीं ॥किरसुन करा चढा ओहि माथे । तब तौ छूट, गए मरोरत हाथ ॥15॥<br><br>अब छुटै न नाथे ॥कारे कवँल गहे मुक देखा । ससि पाछे जनु राहु बिसेखा ॥को देखै पावै वह नागू । सो देखै जेहि के सिर भागू ॥
पेट परत जनु चंदन लावा पन्नग पंकज मुख गहे खंजन तहाँ बईठ । कुहँकुहँ-केसर-बरन सुहावा ॥<br>खीर अहार न कर सुकुवाँरा । पान फूल के रहै अधारा ॥<br>साम भुअंगिनि रोमावली । नाभी निकसि कवँल कहँ चली ॥<br>आइ दुऔ नारँग बिच भई । देखि मयूर ठमकि रहि गई ॥<br>मनहुँ चढी भौंरन्ह पाँती । चंदन-खाँभ बास कै माती ॥<br>की कालिंदी बिरह-सताई । चलि पयाग अरइल बिच आई ॥<br>नाभि-कुंड बिच बारानसी । सौंह को छत्र, सिंघासन, राज, धन ताकहँ होइ, मीचु तहँ बसी ॥<br><br>जो डीठ ॥17॥
सिर करवत, तन करसी बहुत सीझ तन आस लंक पुहुमि अस आहि न काहू ।<br>बहुत धूम घुटि घुटि मिए, उतर केहरि कहौं न देइ निरास ॥16॥<br><br>ओहि सरि ताहू ॥बसा लंक बरनै जग झीनो । तेहि तें अधिक लंक वह खीनी ॥परिहँस पियर भए तेहिं बसा । लिए डंक लोगन्ह कह डसा ॥मानहुँ नाल खंड दुइ भए । दुहूँ बिच लंक-तार रहि गए ॥हिय के मुरे चलै वह तागा । पैग देत कित सहि सक लागा ?॥छुद्रघंटिका मोहहिं राजा । इंद्र-अखाड आइ जनु बाजा ॥मानहुँ बीन गहे कामिनी । गावहि सबै राग रागिनी ॥
बैरिनि पीठि सिंघ न जीता लंक सरि, हारि लीन्ह वह पाछे बनबासु । जनु फिरि चली अपछरा काछे ॥<br>मलयागिरि तेहि रिस मानुस-रकत पिय, खाइ मारि कै पीठि सँवारी । बेनी नागिनि चढी जो कारी ॥ <br>लहरैं देति पीठि जनु चढी । ...........केंचुली मढी ॥<br>दहुँ का कहँ अस बेनी कीन्हीं । चंदन बास भुअंगै लीन्हीं ॥<br>किरसुन करा चढा ओहि माथे । तब तौ छूट,अब छुटै न नाथे ॥<br>कारे कवँल गहे मुक देखा । ससि पाछे जनु राहु बिसेखा ॥<br>को देखै पावै वह नागू । सो देखै जेहि के सिर भागू ॥<br><br>माँसु ॥18॥
पन्नग पंकज मुख गहे खंजन तहाँ बईठ नाभिकुंड सो मयल-समीरू ।<br>समुद-भँवर जस भँवै गँभीरू ॥छत्रबहुतै भँवर बवंडर भए । पहुँचि न सके सरग कहँ गए ॥चंदन माँझ कुरंगिनी खोजू । दहुँ को पाउ , सिंघासनको राजा भोजू ॥को ओहि लागि हिवंचल सीझा । का कहँ लिखी, राज, धन ताकहँ होइ जो डीठ ॥17॥<br><br>ऐस को रीझा ?॥तीवइ कवँल सुगंध सरीरू । समुद-लहरि सोहै तन चीरू ॥भूलहिं रतन पाट के झोंपा । साजि मैन अस का पर कोपा ?॥अबहिं सो अहैं कवँल कै करी । न जनौ कौन भौंर कहँ धरी ॥
लंक पुहुमि अस आहि न काहू बेधि रहा जग बासना परिमल मेद सुगंध । केहरि कहौं न ओहि सरि ताहू ॥<br>बसा लंक बरनै जग झीनो । तेहि तें अधिक लंक वह खीनी ॥<br>परिहँस पियर भए तेहिं बसा । लिए डंक लोगन्ह कह डसा ॥<br>मानहुँ नाल खंड दुइ भए । दुहूँ बिच लंक-तार रहि गए ॥<br>हिय के मुरे चलै वह तागा । पैग देत कित सहि सक लागा ?॥<br>छुद्रघंटिका मोहहिं राजा । इंद्र-अखाड आइ जनु बाजा ॥<br>मानहुँ बीन गहे कामिनी । गावहि सबै राग रागिनी ॥<br><br>अरघानि भौंर सब लुबुधे तजहिं न बंध ॥19॥
सिंघ न जीता बरनौं नितंब लंक सरि, हारि लीन्ह बनबासु कै सोभा ।<br>औ गज-गवन देखि मन लोभा ॥तेहि रिस मानुसजुरे जंघ सोभा अति पाए । केरा-रकत पियखंभ फेरि जनु लाए ॥कवल-चरन अति रात बिसेखी । रहैं पाट पर, खाइ मारि कै माँसु ॥18॥<br><br>पुहुमि न देखी ॥देवता हाथ हाथ पगु लेहिं । जहँ पगु धरै सीस तहँ देहीं ॥माथे भाग कोउ अस पावा । चरन-कँवल लेइ सीस चढावा ॥चूरा चाँद सुरुज उजियारा । पायल बीच करहिं झनकारा ॥अनवट बिछिया नखत तराई । पहुँचि सकै को पायँन ताईं ॥
नाभिकुंड सो मयल-समीरू बरनि सिंगार न जानेउँ नखसिख जैस अभोग । समुद-भँवर जस भँवै गँभीरू ॥<br>बहुतै भँवर बवंडर भए । पहुँचि तस जग किछुइ न सके सरग कहँ गए ॥<br>चंदन माँझ कुरंगिनी खोजू । दहुँ को पाउ , को राजा भोजू ॥<br>को पाएउँ उपमा देउँ ओहि लागि हिवंचल सीझा । का कहँ लिखी, ऐस को रीझा ?॥<br>तीवइ कवँल सुगंध सरीरू । समुद-लहरि सोहै तन चीरू ॥<br>भूलहिं रतन पाट के झोंपा । साजि मैन अस का पर कोपा ?॥<br>अबहिं सो अहैं कवँल कै करी । न जनौ कौन भौंर कहँ धरी ॥<br><br>जोग ॥20॥
बेधि रहा जग बासना परिमल मेद सुगंध ।<br>
तेहि अरघानि भौंर सब लुबुधे तजहिं न बंध ॥19॥<br><br>
बरनौं नितंब लंक कै सोभा । औ गज-गवन देखि मन लोभा ॥<br>
जुरे जंघ सोभा अति पाए । केरा-खंभ फेरि जनु लाए ॥<br>
कवल-चरन अति रात बिसेखी । रहैं पाट पर, पुहुमि न देखी ॥<br>
देवता हाथ हाथ पगु लेहिं । जहँ पगु धरै सीस तहँ देहीं ॥<br>
माथे भाग कोउ अस पावा । चरन-कँवल लेइ सीस चढावा ॥<br>
चूरा चाँद सुरुज उजियारा । पायल बीच करहिं झनकारा ॥<br>
अनवट बिछिया नखत तराई । पहुँचि सकै को पायँन ताईं ॥<br><br>
बरनि सिंगार न जानेउँ नखसिख जैस अभोग ।<br>
तस जग किछुइ न पाएउँ उपमा देउँ ओहि जोग ॥20॥<br><br>
(1) सँकरैं = श्रृंखला, जंजीर । फँदवार = फंद में फँसानेवाले । बलि = निछावर हैं ।
लूरे = लुढँते या लहरते हुए । अरघानि = महँक, आघ्राण । अस्टकुरी = अष्टकुलनाग
(ये हैं - वासुकि, तक्षक, कुलक, कर्कोटक, पद्म, शंखचूड, महापद्म, धनंजय )।
(2) उपराहीं = ऊपर । रुहिर = रुधिर । करवत = कर-पत्र, कुछ लोग त्रिवेणी संगम पर
अपना शरीर आरे से चिरवाते थे, इसी को करवट लेन कहते थे । वहाँ एक आरा इसके लिए
रखा रहता था । काशी में भी एक स्थान था जिसे काशी करवट कहते हैं । तपा = तपस्वी ।
सोहाग =(सौभाग्य), (ख) सोहागा ।
(1) सँकरैं = श्रृंखला, जंजीर । फँदवार = फंद में फँसानेवाले । बलि = निछावर हैं । लूरे = लुढँते या लहरते हुए । अरघानि = महँक, आघ्राण । अस्टकुरी = अष्टकुलनाग (ये हैं - वासुकि, तक्षक, कुलक, कर्कोटक, पद्म, शंखचूड, महापद्म, धनंजय )।
(2) उपराहीं = ऊपर । रुहिर = रुधिर । करवत = कर-पत्र, कुछ लोग त्रिवेणी संगम पर अपना शरीर आरे से चिरवाते थे, इसी को करवट लेन कहते थे । वहाँ एक आरा इसके लिए रखा रहता था । काशी में भी एक स्थान था जिसे काशी करवट कहते हैं । तपा = तपस्वी । सोहाग =(सौभाग्य), (ख) सोहागा ।
(3) ओती = उतनी । अत्र = अस्त्र । हए = हतें, मारा
(4) सहुँ - सामने । हुत =था । बेझ = बेध्य, बेझा निसाना । (5) उलथहिं - उछलते हैं । भवाँ =फेरा,चक्कर । अपसवाँ चहहिं = जाना चाहते हैं, उडकर भागना चाहते हैं (अपस्रवण )। (6) उलटि....पल माहा = बडे बडे अडनेवाले या स्थिर रहनेवाले पल भर में उलट जाते हैं ।फिरावहीं = चक्कर देते हैं ।अनी =सेना । बनावरिं = बाणावलि, तीरों की पंक्ति ।साखी = वृक्ष । साखी = साक्ष्य, गवाही । रन = अरण्य । (7) जोगु देउँ = जोड मिलाउँ। समता में रखूँ । पँवारी = लोहारों का एक औजार जिससे लोहे में छेद करते हैं । हिरकाइ लेइ = पास सटा ले । (8) हीरा लेइ...उजियारा = दाँतों की स्वेत और अधरों की अरुण ज्योति के प्रसार से जगत में उजाला होना, कहकर कवि ने उषा या अरुणोदय का बडा सुन्दर गूढ संकेत रखा है । मजीठ = बहुत गहरा मजीठ के रंगका लालधार = खडी रेखा । (9) चौक =आगे के चार दाँत । पाहन = पत्थर, हीरा । झरक्कि उठे ।झलक गए । अनेक प्रकार के रत्नों के रूप में हो गए । झरक्कि उठे = झलक गए । अनेकप्रकार के रत्नों के रूप में हो गए । (10) अमर = अमरकोश । भासवती = भास्वती नामकज्योतिष का ग्रंथ । सुजनन्ह = सुजानों या चतुरों को । (11) साँधे = साने, गूँधे, खरौरा = खाँड के लड्डू । खँडौरा ।घुँघची =गुँजा । करमुँहा = काले मुँहवाला (12) लौकहिं = चमकती है, दिखाई पडती है । खूँट = कान का एक गहना । खूँट = कोने । खुंभी = कान का एक गहना । कचपचिया =कृतिका नक्षत्र जिसमें बहुत से तारे एक गुच्छे में दिखाई पडते हैं । गोहने = साथ में, सेवा में । (13) कंबु = शंख । रीसी =ईर्ष्या (उत्पन्न करनेवाली ) अथवा `करोसी'कैसी, जैसी; समान । कुंदै = खराद । पुछार =मोर । साँच =साँचा । भाई =फिराई हुई खराद पर घुमाई हुई । (14) गाभ = नरम कल्ला । हथोरी = हथेली । तात =गरम । टाड = बाँह पर पहनने का एक गहना । बेडिन = नाचने गानेवाली एक जाति । पौंनार = पद्मनाल =कमल का डंठल । ठाँवहिं ठाँव..निंत = कमलनाल में काँटे से होते हैं और वह सदा पानी के ऊपर उठा रहता है । (15) कचोर =कटोरे । कूँदे = खरादे हुए । मोन = मोना, पिटारा, डिब्बा । बारी = (क) कन्या (ख) बगीचा । (16) अरइल = प्रयाग में वह स्थान जहाँ जमुना गंगा से मिलती है ।करवत = आरा । करसी = उपले या कंडे की आग जिसमें शरीर सिझाना बडा तप समझा जाता था , (17) करा = कला से, अपने तेज से। कारे = साँप । पन्नग पंकज....बईठ = सर्प के सिर या कमल पर बैठै खंजन को देखने से राज्य मिलता है, ऐसा ज्योतिष में लिखा है । (18) पुहुमि = पृथिवी बसा =बरट, भिड, बरैं । परिहँस = ईर्ष्या, डाह । मानहुँ नाल.....गए = कमल के नाल को तोडने पर दोनों खंडों के बीच महीन महीन सूत लगे रह जाते हैंतागा =सूत । छुद्र-घंटिका = घुँघरूदार करधनी । (19) भँव = घूमता है, चक्कर खाता है । खोजू = खोज, खुर का पडा हुआ चिन्ह । हिवंचल = हिमाचल । तीवह = स्त्री । समुद्र लहरि = लहरिया कपडा । झोंपा = गुच्छा । अरघनि = आघ्राण, महँक ।
(20) फेरि =उलटकर । लाए = लगाए ।
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