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17:11, 30 अप्रैल 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=निशान्त
|संग्रह=धंवर पछै सूरज / निशान्त
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<poem>
का’ल अेक
जाति-भाई आयो अर
जात री धर्मशाळा बणावण सारू
चन्दो मांगण लाग्यो
म्हैं कैयो -
क्यूं भाई,
बात धर्मशाळा बणावणै तांई तो
ठीक है
पण धर्मशाळा नै
अेक जाति में बांधणी
कठै’ क तांई जायज है
फेर जात आळा
कीं री औड़ी में
आडा आवै ?
बेटी तो जात में
ईंयां ब्यावै कै
गैर जात आळा
नेड़ै कोनी लागण द्यै
ईं बात रौ नजायज
फायदो ई
जाति भाई कीं कम नीं उठावै
पींच’र आगलै रो
पाणी काड ल्यै
फेर साळो फिरो
भला ईं सारी उमर
करज में रपटीजतो
बियां ई म्हारी तो
पितायोड़ी है
जात आळा सूं
म्हनै तो कदै ई
कीं रो सारौ होयो तो
गैर जात आळां सूं होयो
जात आळां तो
ईसकै रा मार्या
पतो नीं क्यूं ?
सारी उमर खून ई पीयो
हो कदे म्हनै ई हो
ओ जात-प्यार रो बै’म
पण जाति भायां रा
लखण देख’र
सो कीं छुटग्यो।
</poem>
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