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<poem>
तालिब ए दीद हूँ चेहरा तो दिखा, देखूँ मैं
दरमियाँ पर्दा है क्या, पर्दा उठा देखूँ मैं
मेरी रूदाद पे उस शोख़ की आँखें पुरनम
क़ैस ओ फ़रहाद का अफ़साना सुना देखूँ मैं
आ कभी तू मिरे आँगन में दुलहन बनकर आ
तेरे हाथों पे लगा रँग ए हिना देखूँ मैं
कोई आहट तो हो टूटे मिरे ज़िन्दाँ का सकूत
चुप रहूँ, पाँव की ज़न्जीर हिला देखूँ मैं
अपनी क़िस्मत के सितारे को कि बेनूर सा है
तोड़ कर अर्श से धरती पे गिरा देखूँ मैं
आज गुलशन की हर इक शाख़ है फूलों से लदी
दिल ए पज़मुरदा को भी हँसता हुआ देखूँ मैं
बेसतूँ पर कि किसी नज्द में क्या जाने ‘रवि’
मुझे मिल जाए कहाँ मेरा पता देखूँ मैं
</poem>