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05:55, 28 सितम्बर 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=कुँअर बेचैन
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|संग्रह=
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<poem>अरी चिरइया नींद की,
हो जा जल्दी फुर्र!
कानाबाती कुर्र!
छोड़ अपने आराम को
सूरज निकला काम को,
देकर सबको रोशनी
घर लौटेगा शाम को।
तू भी जल्दी छोड़ दे
खर्राटों की खुर्र!
कानाबाती कुर्र!
जगीं शहर की मंडियाँ
गाँवों की पगडंडियाँ,
खेतों ने भी दिखलाईं
हरी फसल की झंडियाँ।
चली सड़क पर मोटरें
घर-घर-घर-घर घुर्र!
कानाबाती कुर्र!
</poem>