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अक्कड़-बक्कड़ / रत्नप्रकाश शील

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<poem>
अक्कड़-बक्कड़,
लाल बुझक्कड़!
कितना पानी बीच समंदर,
कितना पानी धरती अंदर!
आसमान में कितने तारे,
वन में पत्ते कितने सारे।
दाएँ बाएँ देखें अक्कड़,
ऊपर-नीचे देखे बक्कड़!
अक्कड़-बक्कड़,
लाल बुझक्कड़!

लाल बुझक्कड़, जेब टटोलें,
फिर जने क्या, खुद से बोले-
अरे हो गया यह सब कैसे,
कहाँ गए पॉकेट के पैसे!
अकल नदारद, बिल्कुल फक्कड़,
अक्ल नहीं तो सूखे लक्कड़!
अक्कड़-बक्कड़,
लाल बुझक्कड़!
</poem>
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