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15:02, 4 अक्टूबर 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=कृष्णकांत तैलंग
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|संग्रह=
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<poem>लम्बी लम्बी भूरी मोटी बाबा की थी मूँछें,
मानो होंठों पर रक्खी हो, ला घोड़े की पूँछें।
पीछे दौड़ा करते बाबा, मुझे पकड़ जब लेते,
मूँछ गड़ाकर चूम-चूम कर आफत-सी कर देते।
एक रोज थे सुख से सोते बाबा खर्राटे भर,
नाक बजाते, गाल फुलाकर मुँह अपना बिचका कर।
मुझको तब सूझी शैतानी लख बाबा की मूँछें,
मैंने कैंची लाकर कतरीं घोड़े की वह पूँछें!
</poem>