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|रचनाकार=राधेश्याम प्रगल्भ
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<poem>बच्चे की चाह

सपने में चाहा नदी बनूँ
बन गया नदी,
कोई भी नाव डुबोई मैंने
नहीं कभी।
मैंने चाहा मैं बनूँ फूल,
बन गया फूल,
बन गया सदा मुस्काना ही
मेरा उसूल।
मैंने चाहा मैं मेंह बनूँ,
बन गया मेंह,
बूँद-बूँद मेरी बरसाती
रही नेह।

मैंने चाहा मैं छाँह बनूँ,
बन गया छाँह,
बन गया पथिक हारे को
मैं आरामगाह।
मैंने चाहा मैं व्यक्ति बनूँ
सीधा-सच्चा,
खुल गईं आँख, मैंने पाया
मैं था बच्चा।
</poem>
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