1,594 bytes added,
15:23, 5 अक्टूबर 2015 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=रामानुज त्रिपाठी
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatBaalKavita}}
<poem>यह है अपना टी.वी.,
इसके छोटे परदे पर-
कभी दिखाई देते जंगल
कभी दिखाई देते खेत,
कभी दिखता बड़ा मरुस्थल
दूर-दूर तक फैली रेत!
कभी समंदर लहराता है
नदियाँ बहती हैं हर-हर!
इस पर कभी अचानक
बाघ छलाँगें भरता है,
जिससे गैंडा, हिरन आदि का
झुंड बहुत ही डरता है।
कभी रेंगता है बिच्छू तो
साँप सरकता है सर-सर!
मुँह फैलाए खड़ा सामने
शेर कभी गुर्राता है,
आगे बढ़ता जब, तब लगता
पास हमारे आता है।
यह डरावना दृश्य देखकर
हम तो सहसा जाते डर।
पेड़ों की शाखाओं पर फिर
चिड़ियाँ चूँ-चूँ करती हैं,
उड़-उड़कर वे नीलगगन में
हम सबका मन हरती हैं।
देख-देख टी.वी. पर यह सब
मन खुशियों से जाता भर!
</poem>