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चंदा मामा दूर के / रमेश रंजक

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<poem>चंदा मामा दूर के!
तोड़ रहे हैं छत पर चढ़कर
पत्ते बड़े खजूर के!
चंदा मामा दूर के!

नीले-नीले आसमान में
दिया जले जैसे मकान में
बैठ गए हैं सई साँझ से
रंग लिए अमचूर के
चंदा मामा दूर के!
सीढ़ी-सढ़ी चढ़ते जाते
धीरे-धीरे बढ़ते जाते
इतने बढ़ जाते हैं जैसे
फुलके हो तंदूर के
चंदा मामा दूर के!

कभी दिखें नाखून बराबर
कभी दिखें फूटी-सी गागर
कभी-कभी हफ्तों छिप जाते,
मारे किसी गरूर के
चंदा मामा दूर के!

-साभार: नंदन, दिसंबर, 1972
</poem>
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