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23:52, 5 अक्टूबर 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=भैरूंलाल गर्ग
|अनुवादक=
|संग्रह=
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<poem>वाह-वाह ये काली मूँछें,
लगती बड़ी निराली मूँछें।
किसी-किसी की इंच-इंच भर,
कुछ ने गज भर पाली मूँछें।
कुछ लोगों के तो सचमुच की,
पर जोकर की जाली मूँछें।
बड़ी मूँछ से सब डरते हैं,
ज्यों बंदूक दुनाली मूँछें।
कुछ कहते यह तो झंझट है,
इसीलिए मुँडवा ली मूँछें।
कोई कहता शान मर्द की,
इसीलिए रखवा ली मूँछें।
जिसको जैसी भाई, उसने
उसी रूप में पाली मूँछें!
-साभार: नंदन, जून 89, 30
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