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01:21, 6 अक्टूबर 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=शंभूप्रसाद श्रीवास्तव
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<poem>हम गाँवों में खिलने वाले
नन्हे-मुन्ने फूल,
चंदन बन जाती है जगकर
अंग हमारे धूल!
सीधा-सादा रहन-सहन
मोटा खाना, पहनावा,
नहीं जानते ठाट-बाट
चतुराई और दिखावा।
मिलीं गोद में हमें प्रकृति की
दो वस्तुएँ महान,
हीरे जैसी हँसी हमारी,
मोती-सी मुसकान!
-साभार: शेरसखा, कलकत्ता
</poem>