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नन्हे हैं हम दीप / प्रतीक मिश्र

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<poem>नन्हें हैं हम दीप, जगत को दमकाएँगे!

थोड़ा नेह और लघु बाती मिट्टी का तन,
यह अपनी सीमा है फिर भी ऊँचा है मन,
पूरी धरती को किरणों से भर जाएँगे,
नन्हे हैं हम दीप, जगत को दमकाएँगे!

ऐसे कितने ही अँधियारे देख चुके हैं,
पर न कभी भी अपने मस्तक कहीं झुके हैं,
हम तो तम में भी मुस्काते, मुस्काएँगे,
नन्हे हैं हम दीप, जगत को दमकाएँगे!

हारे-थके लोग जब चाहें, तब सो जाएँ,
जिन्हें भोर की चाह, साथ वे अपने आएँ,
सूरज के घर का पथ हम ही दिखलाएँगे,
नन्हे हैं हम दीप, जगत को दमकाएँगे!
</poem>
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