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जलेबी / प्रमोद जोशी

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<poem>रस में डूबी गोल जलेबी
है कितनी अनमोल जलेबी,
चक्कर पे चक्कर दे मन को
करती डाँवाडोल जलेबी!

शुरू कहाँ से, खत्म कहाँ पर
बतलाती न पोल जलेबी,
इक अनबूझ पहेली लगती
सुंदर गोल-मटोल जलेबी।

मस्ती में जब भी आ जाती
करती टालम-टोल जलेबी,
ललचाती है सबके मन को
‘पाकेट’ देती खोल जलेबी।

देख इसे सब खुश हो जाते
बजवाती है ढोल जलेबी,
मुँह में आकर घुल जाती झट
कहती मीठे बोल जलेबी।
</poem>
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