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छिपकली / 'दिग्गज' मुरादाबादी

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<poem>अरी छिपकली, चिपक रही है,
तू जो इस दीवार पर,
मान न मान नज़र है तेरी
अब भी किसी शिकार पर।
दबे पाँव बढ़ना, फिर रुकना
कोई ऊँची घात है,
एक झपट्टे में शिकार पर
वाह-वाह क्या बात है!
कैसे साधे अरी निशाना
हमको भी सिखलादे,
या जिससे सीखा है तूने
उसका पता बतादे।
</poem>
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