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|रचनाकार=कृष्णबल्लभ पौराणिक
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<poem>बंदर इक कद्दू को लाया
उसे सड़क पर था दौड़ाया,
अंदर से पोला था कद्दू
जोर-शोर से वह चिल्लाया।

बंदर ने मुझको लुढ़काया
देख रहा है वह ललचाया,
कब फूटूँ वह खा ले मुझको
इसीलिए मुझको ढुँढ़वाया।

सुनकर पालक दौड़ा आया
उसने अपना ढेर लगाया,
आर-पार सड़क के ऊपर
जिससे कद्दू था रुक पाया।

धन्यवाद है पालक भैया
तुमने मुझको खूब बचाया,
बंदर देख रहा है गुमसुम
मनचाहा वह कर ना पाया।
</poem>
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