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22:11, 7 अक्टूबर 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रामनरेश पाठक
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|संग्रह=
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<poem>तुम
शीतल,
कठोर,
मौन पाषाण प्रतिमा.
सौंदर्यहीन नहीं
किन्तु-
निष्प्राण, आवेगहीन.
जाने दो;
मगर घड़ी भर के लिए
मैं तुम्हारी उन आँखों को
पुनः देखना चाहता हूँ
जो मेरी ओर पहली बेर उठीं भर थीं कि
उभरे कपोलों पर झुक आयी थी;
और
रात थोड़ी देर को ठहर गयी थी
चाँद मुरझ गया था,--और
हम दोनों के अधरों पर
पतली हंसी छूट पड़ी थी,
आँवले की पत्तियां और
सट आई थी,
मगर तुम
शीतल, कठोर, पाषाण-प्रतिमा !!!
</poem>