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|रचनाकार=दिनेश कुमार स्वामी 'शबाब मेरठी']]
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<poem>
न्याय माँगा करता था कल जो दर-ब-दर बाबा
अब बना लिया उसने बीहड़ों में घर बाबा

तू पद़्आ र्हा यूँ ही उम्र भर अपहिज-सा
लोग तेरे पैरोम से कर गये सफ़र बाबा

गाँव में हमारे भी अब्र छा गया होगा
जाल से घिरा होगा मछलियों का घर बाबा

एक हाथ लाठी का दूसरा सलामी का
इस नगर में सब निकले साहिबे- हुनर बाबा

फिर मचान के नीचे आग जल रही होगी
ज़ुल्म हो रहा होगा बाँधकर नज़र बाबा
</poem>