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|रचनाकार=दिनेश कुमार स्वामी 'शबाब मेरठी']]
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<poem>
चोट भला कब तक सह पाते आख़िर तो झल्लाते ही
टूट गए इस बार हथौड़े पत्थर से टकराते ही

उनकी ख़ता तो कुछ भी नहीं थी वो तो मिलने आये थे
इतना अँधेरा था जब घर में लाज़िम था टकराते ही

मैं ख़ुद अपनी उम्मीदों को मैदानों तक लाया था
हरियाली को देख के घोड़े अपनी पूँछ हिलाते ही

भूल हमारी ही थी यारो! साँपों को तकिया समझा
साँप तो आख़िर साँप ही ठहरे अपना काम दिखाते ही

जुर्म किसी के हाथों हो लेकिन इन्साफ़ ज़ुरूरी है
मासूमों को क़ैद हुई तो क़ातिल जश्न मनाते ही

</poem>