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पुत्रमोह / निर्मला गर्ग

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<poem>बैठक में रखी मेज के शीशे के नीचे
दो तस्वीरें सजी हैं
ये तस्वीरें मेरे भइयों की हैं
एक हैदराबाद रहता है एक दिल्ली
पिताजी मेज पर घंटो व्यस्त दीखते हैं
पेट्रोल पंप बिक चुका है बाकी कारोबार
पहले से ही ठप हैं
इतने बड़े घर में पिताजी अकेले रहते हैं
बेटियों की शादी हो गई पत्नी का स्वर्गवास हुआ
(घर पुरातत्व का नमूना लगता है
एक समय खूब गुलजार था।)
खाने के बेहद शौकीन पिताजी कई कई दिन
दूध ब्रेड पर गुजारा करते हैं
मुझे याद है उनका भोजन करना
घर का सबसे अहम काम हुआ करता था
(उसके बाद सब चैन से बतियाते हुए खाते थे)
बेटों में से कभी कभी कोई आता है
अपने हिस्से के रूपये लेने
कोई नहीं कहता आप चलकर हमारे साथ रहें
हमें खुशी होगी
बड़ी बहन बीच-बीच में आती है
जितना होता है सब व्यवस्थित कर जाती
नौकर को तनखा से अलग और रूपयों का लालच देती है
ताकि टिका रहे
(बेमतलब डांटने की बाबूजी की लत तो जाने से रही)
मेरे मन में कई बार आया
मेज के नीचे की तस्वीरें बदल दूं
भाइयों की फोटो हटा
बड़ी बहन की तस्वीर लगा दूं
पर जानती हूं पिताजी सह नहीं पायेंगे मेरी
इस हरकत को
सख्त नाराज़ होंगे
बहन को भी मलाल होगा व्यर्थ पिताजी को दुख पहुंचा
पुत्र मोह का यह नाता भारत में ही बहता है
या विदेशों में भी है इसका अस्तित्व
चिंतनीय यह प्रश्न जवाब दें आप मैं विदेश गई नहीं...

(साभार: कबाड़ी का तराजू, राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित)</poem>
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