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बस्ती का जीवन / मनोज चौहान

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<poem>
उस बस्ती से गुजरते हुए,
मैं अक्सर देखता हूं,
तम्बुओं में रहने वाले,
उन लोगों का जीवन ।

भूखे पेट ही,
शुरू होती है,
जिनकी दिनचर्या,
सुबह होते ही,
सड.कों पर,
निकल आते हैं,
वह नन्हें कदम ।

उठाए हुए थैले,
पुरानी रद्दी,
और लोहे का सामान,
इकठ्ठा करने को ।

निकल आती हैं,
स्त्रियां घर से,
लकडि.यां इकठ्ठा,
करने को,
ताकि जुटा सके वो ईंधन,
शाम के चुल्हे के लिए ।

बरसात हो,धूप हो,
या कड़ाके की सर्दी,
नंगे पांव चलते,
अक्सर देखता हूं उनको ।

वे लोग जो नहीं जानते,
कि घर क्या होता है,
मगर परिचित हैं वह ,
घर ना होने की पीड़ा से ।

उन असहाय आंखों में भी,
कुछ तो होते हैं सपने,
वे नहीं चाहते,
दुनिया का एशो -आराम ।

बस दो बक्त का खाना,
बदन पर कपडे.,
और सिर पर एक छत,
यहीं तक सीमित है,
उनके सपनों की दुनिया ।
सुबह से शाम तक,
वह करते हैं मेहनत,
तकि जल सके चुल्हा,
शाम को,
और फिर चार निवाले खाकर,
मूंद लेते हैं आंखें,
ताकि उठ सके सुबह फिर से,
वही दिनचर्या दोहराने को ।
<poem>