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परिंदे / मनोज चौहान

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<poem>
मैं करता रहा,
हर बार वफा,
दिल के कहने पर,
मुद्रतों के बाद,
ये हुआ महसूस,
कि नादां था मैं भी,
और मेरा दिल भी,
परखता रहा,
हर बार जमाना,
हम दोनों को,
दिमाग की कसौटी पर ।

ता उम्र जो चलते रहे,
थाम कर उंगली,
वो ही शख्स आज,
बढ़ा बैठे समझ खुद की,
और सिखा रहें हैं मुझे अब,
फलसफा-ऐ-जिंदगी ।

उन नादां परिन्दो का,
अपना होने का अहसास,
करता रहा हर बार संचार,
मेरे भीतर एक नई उर्जा का ।

मैं खुश था कि,
मिल चुके हैं पंख,
अब उन परिन्दो को,
मगर हैरत हुई बहुत,
जो देखा कि,
वो भरना चाहते हैं,
कभी ना लौटने वाली,
उड़ान अब ।



</poem>